इन्सानोँ ने सोचा था कि भगवान का नाम ले लेने से सब ठीक हो जाता है।

इन्सानोँ ने सोचा था कि भगवान का नाम ले लेने से सब ठीक हो जाता है। और कुछ नहीँ होगा तो आँख बन्द करके हाय हाय कर लेंगे। कोस लेंगे जो जिम्मेदार होगा, मेरी कोई जिम्मेदारी नहीँ है। किसी ने भी अपनी जिम्मेदारी नहीँ समझी क्यूँकी प्रकृति न तो किसी की बीबी है, न पति, न अपना बच्चा, न माँ-बाप। और तो और वो वोट माँगने भी नहीँ आती। मेरे जाति, धर्म या देश से भी उसका कोई रिश्ता नहीँ। इन मूर्खोँ को यह नहीँ पता था कि वो बोलती नहीँ जैसा कि नेता भाषण देकर बताता है कि फलाँ चीज़ मुद्दा है। वो हमसे कहीँ ज्यादा क्रूर है। सीधा वार, ये ले मूर्ख इंसान! भुगत्। वैसे फिर भी मैं कहुँगा कि उसकी हम इंसानोँ से कोई दुश्मनी नहीँ है। ये हमारी ही तथाकथित बुद्धिमानी भरी करतूतोँ का नतीजा है। और जब ऐसा होता मिला तो अब कोई नहीँ कहता मिला कि बहुत मज़ा आ रहा है और मैं तो बङा ही शक्तिशाली हूँ। अब तो चीखपुकार मची हुई है।
वैसे इन इंसानोँ को तो सूअर कहना भी सूअर का अपमान है। सूअर प्रकृति का बलात्कार नहीँ करता, उसे साफ सुथरा करके निरोग करता है। इंसान अपने मतलब के लिये इसका ठीक उल्टा करता है। मैंने देखा है शहरोँ को बसते और अपने आस पास की हरियाली को जाते। साथ ही गँदगी का पहाङ खङा होते, जिसके पास से नाक दबाये इंसानोँ को गुजरते देखा जा सकता है। जब जँगल काटे जा रहे थे तो वो नुकसान नहीँ था, वो तो विकास-यात्रा थी। जब तमाम जीव जातियोँ का हम सत्यानाश कर रहे थे तब तो हम ढोग करते रहे कि हम सबका भला कर रहे हैं। अब क्या हुआ?? पहाङ से छेङछाङ करके, पहाङ के नाजुक और उसके पर्यावरण के लिये महत्वपूर्ण जँगलो को नुकसान पहुँचाकर, और मामूली से बाँध बना कर हम तब तो बङी डींगे हाँकते थे कि इंसान चाह ले तो पहाङ हिला सकता है। और चार मीटर नदी का पानी बढ गया तो भीगे चूहोँ की तरह से चीचियाने लगे। अब क्यूँ नहीँ हिलाते पहाङ???? मैं दोहराकर कहुँगा कि पूरे भारत और खासकर उत्तर भारत के लिये पहाङ बहुत महत्वपूर्ण हैं, उन्हेँ प्रदूषित और बर्बाद करके मैंदानोँ का जीवन भी नहीँ बचाया जा सकेगा। नदियोँ में एक बूँद साफ पानी भी नहीँ मिलेगा। फसल पैदा करने का तो ख्वाब देखना भी भूल है। और बरसात के दिन कहर बन जायेंगे। वैसे एक बोलत साफ पानी भी जिस देश में खरीदने पर ही मिलता है वहाँ के इंसान ऐसे हालात में कितने सहृदय होंगे कहने की जरूरत नहीँ है। उदाहरण के लिये 2013 की उत्तराखँड की केदारनाथ की बाढ का समय रहा हो या आजकल की जम्मू की बाढ, लोग मजबूर लोगोँ को लूटने में लग जाते हैं। समाचार में आ रहा है कि वैष्णोँ देवी के यात्रियोँ का खाना और होटल का किराया दोगुना हो गया है। और पिछले वर्ष केदारनाथ में मृतक लोगोँ के हाथ और उँगलियाँ काट कर जेवर निकाल लिये थे इंसानोँ ने। ऐसे हालात में कोढ में खाज खुद इंसान ही बन जाते हैं दूसरे इंसानोँ के लिये, अर्थात बदतर हालात में बेहतर मदद की उम्मीद है मुझे।

और हाँ! एक बात और कि मुझे धरती की चिंता नहीँ है। धरती तो कहा जाता है कि मँगल ग्रह जितने बङे ग्रह से टकराकर भी बच गयी थी। बस एक चाँद पैदा हुआ था। डायनासोर चले गये मगर धरती है। पर्मियन और दूसरे कई युग के कई बङे-बङे जानवर जिनकी ताकत का कोई मुकाबला नहीँ था, लापता हो गये मगर धरती टस से मस नहीँ हुई। तो बात धरती के या यहाँ के जीवन के खत्म हो जाने की नहीँ है, और मैं यह भी साफ कर देना चाहता हूँ कि ऐसा नहीँ सोचना चाहिये कि इंसान धरती बचा रहा है या नष्ट कर रहा है असल में वह खुद को ही बचा रहा है या नष्ट कर रहा है। धरती या जीवन जैसी चीजोँ के सामने इंसान की कोई औकात नहीँ है, वह अपना सीना फुला कर, अकङ कर डींगे चाहे जितनी हाँक ले। इन इंसानोँ को मैं जानता हूँ कि औकात पता चल जायेगी एक दिन अपनी, मगर तब तक इतनी देर हो चुकी होगी कि तथाकथित तमाम मासूम अपने भगवान के बनाये स्वर्ग या नर्क के वासी हो चुके होंगे। और ऐसा होते समय तमाम चीख पुकार और हाय हाय मचेगी।

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