यहाँ ‘ईश्वर’ से हमारा तात्पर्य है “परम सत्ता ” न कि ‘देवता’ । ‘देवता’ एक अलग शब्द है जिसका अशुद्ध प्रयोग अधिकतर ’परमसत्ता’ के लिए कर लिया जाता है। हालाँकि ईश्वर भी एक ‘देवता’ है। कोई भी पदार्थ – जड़ व चेतन – जो कि हमारे लिए उपयोगी हो व सहायक हो, उसे ‘देवता’ कहा जाता है । किन्तु उसका अर्थ यह नहीं है कि हर कोई ऐसी सत्ता ईश्वर है और उसकी उपासना की जाये । कोई भ्रम न हो इसलिए इस लेख में हम ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग करेंगे ।
वह परम पुरुष जो निस्वार्थता का प्रतीक है, जो सारे संसार को नियंत्रण में रखता है , हर जगह मौजूद है और सब देवताओं का भी देवता है , एक मात्र वही सुख देने वाला है । जो उसे नहीं समझते वो दुःख में डूबे रहते हैं, और जो उसे अनुभव कर लेते हैं, मुक्ति सुख को पाते हैं । (ऋग्वेद 1.164.39)
प्रश्न 1.: वेदों में कितने ईश्वर हैं ? हमने सुना है कि वेदों में अनेक ईश्वर हैं ।
उत्तर : आपने गलत स्थानों से सुना है । वेदों में स्पष्ट कहा है कि एक और केवल एक ईश्वर है । और वेद में एक भी ऐसा मंत्र नहीं है जिसका कि यह अर्थ निकाला जा सके कि ईश्वर अनेक हैं । और सिर्फ इतना ही नहीं वेद इस बात का भी खंडन करते हैं कि आपके और ईश्वर के बीच में अभिकर्ता (एजेंट) की तरह काम करने के लिए पैगम्बर, मसीहा या अवतार की जरूरत होती है । मोटे तौर पर यदि समानता देखी जाये तो : इस्लाम में शहादा का जो पहला भाग है उसे लिया जाये : ला इलाहा इल्लल्लाह (सिर्फ और सिर्फ एक अल्लाह के सिवाय कोई और ईश्वर नहीं है ) और दूसरे भाग को छोड़ दिया जाये : मुहम्मदुर रसूलल्लाह (मुहम्मद अल्लाह का पैगम्बर है ), तो यह वैदिक ईश्वर की ही मान्यता के समान है । इस्लाम में अल्लाह को छोड़कर और किसी को भी पूजना शिर्क (सबसे बड़ा पाप ) माना जाता है । अगर इसी मान्यता को और आगे देखें और अल्लाह के सिवाय और किसी मुहम्मद या गब्रेइल को मानाने से इंकार कर दें तो आप वेदों के अनुसार महापाप से बच जायेंगे ।
प्रश्न 2: वेदों में वर्णित विभिन्न देवताओं या ईश्वरों के बारे में आप क्या कहेंगे…??? 33 करोड़ देवताओं के बारे में क्या….???
उत्तर: 1. जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है जो पदार्थ हमारे लिए उपयोगी होते हैं वो देवता कहलाते हैं । लेकिन वेदों में ऐसा कहीं नहीं कहा गया कि हमे उनकी उपासना करनी चाहिए । ईश्वर देवताओं का भी देवता है और इसीलिए वह महादेव कहलाता है , सिर्फ और सिर्फ उसी की ही उपासना करनी चाहिए ।
2. वेदों में 33 कोटि का अर्थ 33 करोड़ नहीं बल्कि 33 प्रकार (संस्कृत में कोटि शब्द का अर्थ प्रकार होता है) के देवता हैं । और ये शतपथ ब्राह्मण में बहुत ही स्पष्टतः वर्णित किये गए हैं, जो कि इस प्रकार है : 8 वसु (पृथ्वी, जल, वायु , अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र ), जिनमे सारा संसार निवास करता है । 10 जीवनी शक्तियां अर्थात प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त , धनञ्जय ), ये तथा 1 जीव ये ग्यारह रूद्र कहलाते हैं 12 आदित्य अर्थात वर्ष के 12 महीने 1 विद्युत् जो कि हमारे लिए अत्यधिक उपयोगी है 1 यज्ञ अर्थात मनुष्यों के द्वारा निरंतर किये जाने वाले निस्वार्थ कर्म । शतपथ ब्राहमण के 14 वें कांड के अनुसार इन 33 देवताओं का स्वामी महादेव ही एकमात्र उपासनीय है । 33 देवताओं का विषय अपने आप में ही शोध का विषय है जिसे समझने के लिए सम्यक गहन अध्ययन की आवश्यकता है । लेकिन फिर भी वैदिक शास्त्रों में इतना तो स्पष्ट वर्णित है कि ये देवता ईश्वर नहीं हैं और इसलिए इनकी उपासना नहीं करनी चाहिए ।
3. ईश्वर अनंत गुणों वाला है । अज्ञानी लोग अपनी अज्ञानतावश उसके विभिन्न गुणों को विभिन्न ईश्वर मान लेते हैं ।
4. ऐसी शंकाओं के निराकरण के लिए वेदों में अनेक मंत्र हैं जो ये स्पष्ट करते हैं कि सिर्फ और सिर्फ एक ही ईश्वर है और उसके साथ हमारा सम्पर्क कराने के लिए कोई सहायक, पैगम्बर, मसीहा, अभिकर्ता (एजेंट) नहीं होता है । यजुर्वेद 40.1 यह सारा संसार एक और मात्र एक ईश्वर से पूर्णतः आच्छादित और नियंत्रित है । इसलिए कभी भी अन्याय से किसी के धन की प्राप्ति की इच्छा नहीं करनी चाहिए अपितु न्यायपूर्ण आचरण के द्वारा ईश्वर के आनंद को भोगना चाहिए । आखिर वही सब सुखों का देने वाला है । ऋग्वेद 10.48.1 एक मात्र ईश्वर ही सर्वव्यापक और सारे संसार का नियंता है । वही सब विजयों का दाता और सारे संसार का मूल कारण है । सब जीवों को ईश्वर को ऐसे ही पुकारना चाहिए जैसे एक बच्चा अपने पिता को पुकारता है । वही एक मात्र सब जीवों का पालन पोषण करता और सब सुखों का देने वाला है । ऋग्वेद 10.48.5 ईश्वर सारे संसार का प्रकाशक है । वह कभी पराजित नहीं होता और न ही कभी मृत्यु को प्राप्त होता है । वह संसार का बनाने वाला है । सभी जीवों को ज्ञान प्राप्ति के लिए तथा उसके अनुसार कर्म करके सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए । उन्हें ईश्वर की मित्रता से कभी अलग नहीं होना चाहिए । ऋग्वेद 10.49.1 केवल एक ईश्वर ही सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वालों को सत्य ज्ञान का देने वाला है । वही ज्ञान की वृद्धि करने वाला और धार्मिक मनुष्यों को श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त करने वाला है । वही एकमात्र इस सारे संसार का रचयिता और नियंता है । इसलिए कभी भी उस एक ईश्वर को छोड़कर और किसी की भी उपासना नहीं करनी चाहिए । यजुर्वेद 13.4 सारे संसार का एक और मात्र एक ही निर्माता और नियंता है । एक वही पृथ्वी, आकाश और सूर्यादि लोकों का धारण करने वाला है । वह स्वयं सुखस्वरूप है । एक मात्र वही हमारे लिए उपासनीय है । अथर्ववेद 13.4.16-21 वह न दो हैं, न ही तीन, न ही चार, न ही पाँच, न ही छः, न ही सात, न ही आठ, न ही नौ , और न ही दस हैं । इसके विपरीत वह सिर्फ और सिर्फ एक ही है । उसके सिवाय और कोई ईश्वर नहीं है । सब देवता उसमे निवास करते हैं और उसी से नियंत्रित होते हैं । इसलिए केवल उसी की उपासना करनी चाहिए और किसी की नहीं । अथर्ववेद 10.7.38 मात्र एक ईश्वर ही सबसे महान है और उपासना करने के योग्य है । वही समस्त ज्ञान और क्रियाओं का आधार है । यजुर्वेद 32.11 ईश्वर संसार के कण-कण में व्याप्त है । कोई भी स्थान उससे खाली नहीं है । वह स्वयंभू है और अपने कर्मों को करने के लिए उसे किसी सहायक, पैगम्बर, मसीहा या अवतार की जरुरत नहीं होती । जो जीव उसका अनुभव कर लेते हैं वो उसके बंधनरहित मोक्ष सुख को भोगते हैं । वेदों में ऐसे असंख्य मंत्र हैं जो कि एक और मात्र एक ईश्वर का वर्णन करते हैं और हमें अन्य किसी अवतार, पैगम्बर या मसीहा की शरण में जाये बिना सीधे ईश्वर की उपासना का निर्देश देते हैं। प्रश्न: आप ईश्वर के अस्तित्व को कैसे सिद्ध करते हैं ? उत्तर: प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रमाणों के द्वारा ।
प्रश्न 3: लेकिन ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं घट सकता, तब फिर आप उसके अस्तित्व को कैसे सिद्ध करेंगे….???
उत्तर: 1. प्रमाण का अर्थ होता है ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा स्पष्ट रूप से जाना गया निर्भ्रांत ज्ञान । परन्तु यहाँ पर ध्यान देने की बात यह है कि ज्ञानेन्द्रियों से गुणों का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नहीं । उदाहरण के लिए जब आप इस लेख को पढ़ते हैं तो आपको अग्निवीर के होने का ज्ञान नहीं होता बल्कि पर्दे (कंप्यूटर की स्क्रीन ) पर कुछ आकृतियाँ दिखाई देती हैं जिन्हें आप स्वयं समझकर कुछ अर्थ निकालते हैं । और फिर आप इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस लेख को लिखने वाला कोई न कोई तो जरूर होगा और फिर आप दावा करते हैं कि आपके पास अग्निवीर के होने का प्रमाण है । यह “अप्रत्यक्ष” प्रमाण है हालाँकि यह “प्रत्यक्ष” प्रतीत होता है । ठीक इसी तरह पूरी सृष्टि, जिसे कि हम, उसके गुणों को अपनी ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण करके, अनुभव करते हैं, ईश्वर के अस्तित्व की ओर संकेत करती है ।
2. जब किसी इन्द्रिय गृहीत विषय से हम किसी पदार्थ का सीधा सम्बन्ध जोड़ पाते हैं, तो हम उसके “प्रत्यक्ष प्रमाणित” के होने का दावा करते हैं । उदहारण के लिए जब आप आम खाते हैं तो मिठास का अनुभव करते हैं और उस मिठास को अपने खाए हुए आम से जोड़ देते हैं । यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि आप ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण केवल उस इन्द्रिय से जोड़ सकते हैं जिसे कि आपने उस विषय का अनुभव करने के लिए प्रयोग किया है । इस प्रकार पूर्वोक्त उदहारण में आम का ‘प्रत्यक्ष’ ‘कान’ से नहीं कर सकते, बल्कि ‘जीभ’, ‘नाक’ या ‘आँखों’ से ही कर सकते हैं । हालाँकि समझने में सरलता हो इसलिए हम इसे ‘प्रत्यक्ष प्रमाण’ कह रहे हैं लेकिन वास्तव में यह भी ‘अप्रत्यक्ष प्रमाण’ ही है। अब क्यूंकि ईश्वर सबसे सूक्ष्म पदार्थ है इसलिए स्थूल इन्द्रियों ‘आँख’, ‘नाक’, ‘कान’, ‘जीभ’ और ‘त्वचा’ से उसका प्रत्यक्ष असंभव है । जैसे की हम सर्वोच्च क्षमता वाले सूक्ष्मदर्शी के होते हुए भी अत्यंत सूक्ष्म कणों को नहीं देख सकते, अत्यंत लघु तथा अत्यंत उच्च आवृत्ति की तरंगों को नहीं सुन सकते, प्रत्येक अणु के स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकते । दुसरे शब्दों में कहें तो जैसे हम कानों से आम का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते और यहाँ तक की किसी भी इन्द्रिय से अत्यंत सूक्ष्म कणों को नहीं अनुभव कर सकते, ठीक ऐसे ही ईश्वर को भी क्सिसिं स्थूल और क्षुद्र इन्द्रियों से प्रत्यक्ष करना असंभव है ।
3. एक मात्र इन्द्रिय जिससे ईश्वर का अनुभव होता है वह है मन । जब मन पूर्णतः नियंत्रण में होता है और किसी भी प्रकार के अनैच्छिक विघ्नों (जैसे कि हर समय मन में आने वाले विभिन्न प्रकार के विचार ) से दूर होता है और जब अध्ययन और अभ्यास के द्वारा ईश्वर के गुणों का सम्यक ज्ञान हो जाता है तब बुद्धि से ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान ठीक उसी प्रकार होता है जैसे कि आम का अनुभव उसके स्वाद से । यही जीवन का लक्ष्य है और इसी के लिए योगी विभिन्न प्रकार के उपायों से मन को नियंत्रण में करने का प्रयास करता है । इन उपायों में से कुछ इस प्रकार हैं: अहिंसा, सत्य की खोज, सद्भाव, सबके सुख के लिए प्रयास, उच्च चरित्र, अन्याय के विरुद्ध लड़ना, एकता के लिए प्रयास इत्यादि ।
4. एक प्रकार से देखा जाये तो अपने दैनिक जीवन में भी हमे इश्वर के होने के प्रत्यक्ष संकेत मिलते हैं । जब भी कभी हम चोरी, क्रूरता धोखा आदि किसी बुरे काम को करने की शुरुआत करते हैं तभी हमे अपने अन्दर से एक भय, लज्जा या शंका के रूप में एक अनुभूति होती है । और जब हम दूसरों की सहायता करना आदि शुभ कर्म करते हैं तब निर्भयता, आनंद , संतोष, और उत्साह का अनुभव, ये सब ईश्वर के होने का प्रत्यक्ष संकेत है । यह ‘अंतरात्मा की आवाज़’ ईश्वर की ओर से है । अधिकतर हम अपनी मूर्खतापूर्ण प्रवृत्तियों के छद्म आनंददायी गीतों के शोर से दबाकर इस आवाज़ को सुनने की क्षमता को कम कर देते हैं । लेकिन जब कभी हम अपेक्षाकृत शांत होते हैं तब हम सभी इस ‘अंतरात्मा की आवाज़’ की तीव्रता को बढ़ा हुआ अनुभव करते हैं ।
5. और जब आत्मा अपने आप को इन मानसिक विक्षोभों/हलचलों/तरंगों से छुड़ाकर इन छाद्मआनंददायी गीतों की दुनिया से दूर कर लेता है तब वह स्वयं तथा ईश्वर दोनों का प्रत्यक्ष अनुभव कर पाता है । इस प्रकार प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के प्रमाणों से ईश्वर के होने का उतना ही स्पष्ट अनुभव होता है जितना कि उन सब पदार्थों के होने का जिन्हें की हम स्थूल इन्द्रियों के द्वारा अनुभव करते हैं ।
प्रश्न 4: ईश्वर कहाँ रहता है…???
उत्तर- (1) ईश्वर सर्वव्यापक है अर्थात सब जगह रहता है । यदि वह किसी विशेष स्थान जैसे किसी आसमान या किसी विशेष सिंहासन पर रहता तो फिर वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सबका उत्पादक, नियंत्रक और विनाश करने वाला नहीं हो सकता । आप जिस स्थान पर नहीं हैं उस स्थान पर आप कोई भी क्रिया कैसे कर सकते हैं ?
(2) यदि आप यह कहते हैं कि ईश्वर एक ही स्थान पर रहकर सारे संसार को इसी प्रकार नियंत्रण में रखता है जैसे कि सूर्य आकाश में एक ही स्थान पर रहकर सारे संसार को प्रकाशित करता है या जैसे हम रिमोट कण्ट्रोल का प्रयोग टी वी देखने के लिए करते हैं, तो आपका यह तर्क अनुपयुक्त है । क्यूंकि सूर्य का पृथ्वी को प्रकाशित करना और रिमोट कण्ट्रोल से टी वी चलना ये दोनों ही तरंगो के आकाश में संचरण के द्वारा होते हैं । हम उसे रिमोट कण्ट्रोल सिर्फ इसलिए कहते हैं क्यूंकि हम उन तरंगों को देख नहीं सकते। इसलिए ईश्वर का किसी भी चीज को नियंत्रित करना खुद ये सिद्ध करता है कि ईश्वर उस चीज में है ।
(3) यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो वह स्वयं को छोटी सी जगह में करके क्यूँ रखेगा ? तो ईश्वर जायेगा । ईसाई कहते हैं कि गॉड चौथे आसमान है और कहते हैं कि अल्लाह पर है । और उनके अनुयायी अपने आपको सही करने के लिए आपस में लड़ते रहते हैं । क्या इसका मतलब ये न समझा जाये कि अल्लाह और गॉड अलग अलग आसमानों में इसलिए रहते हैं कि कहीं वो भी अपने क्रोधी अनुयायियों की न लग जाएँ ? वास्तव में ये एकदम बच्चों जैसी बातें हैं । जब ईश्वर सर्वशक्तिमान और सरे संसार को नियंत्रण में रखता है तो फिर कोई कारण नहीं है कि वह खुद को किसी छोटी सी जगह में सीमित कर के रखे । और अगर ऐसा है तो फिर उसे सर्वशक्तिमान नहीं कहा जा सकता ।
प्रश्न 5: तो क्या इसका यह अर्थ हुआ कि ईश्वर अपवित्र वस्तुओं जैसे कि मदिरा, मल और मूत्र में भी रहता है…????
उत्तर- (1) पूरा संसार ईश्वर में है । क्यूंकि ईश्वर इन सब के बाहर भी है लेकिन ईश्वर के बाहर कुछ नहीं है । इसलिए संसार में सब कुछ ईश्वर से अभिव्याप्त है । मोटे तौर पर अगर इसकी समानता देखी जाये तो हम सब ईश्वर के अन्दर वैसे ही हैं जैसे कि जल से भरे बर्तन में कपडा । उस कपडे के अन्दर बाहर हर ओर जल ही जल है । उस कपडे का कोई भाग ऐसा नहीं है जो जल से भीगा न हो लेकिन उस कपडे के बाहर भी हर ओर जल ही जल है ।
(2) कोई वस्तु हमारे लिए स्वच्छ या अस्वच्छ है यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारे लिए उस वस्तु की क्या उपयोगिता है । जिस आम का स्वाद हमको इतना प्रिय होता है वह जिन परमाणुओं से बनता है वही परमाणु जब अलग अलग हो जाते हैं और अन्य पदार्थों के साथ क्रिया करके मल का रूप ले लेते हैं तो वही हमारे लिए अपवित्र हो जाते हैं । वास्तव में ये सब प्राकृतिक कणों के योग से बने भिन्न भिन्न सम्मिश्रण ही हैं । हम सब का इस संसार में होने का कुछ उद्देश्य है, हम हर चीज को उस उद्देश्य की तरफ़ बढ़ने की दृष्टि से देखते हैं और कुछ को स्वीकार करते हैं जो कि उस उद्देश्य के अनुकूल हों और बाकि सब को छोड़ते चले जाते हैं । जो हम छोड़ते हैं वो सब हमारे लिए अपवित्र / बेकार होता है, और जो हम स्वीकार करते हैं मात्र वही हमारे लिए उपयोगी होता है । लेकिन ईश्वर के लिए इस संसार का ऐसा कोई उपयोग नहीं है, इसलिए उसके लिए कुछ अपवित्र नहीं है । इसके ठीक विपरीत उसका प्रयोजन हम सबको न्यायपूर्वक मुक्ति सुख का देना है, इसलिए पूरी सृष्टि में कोई भी वस्तु उसके लिए अस्पृश्य नहीं है ।
(3) दूसरी तरह से अगर समानता देखी जाये तो ईश्वर कोई ऐसे समाजसेवी की तरह नहीं है जो कि अपने वालानुकूलित कार्यालय में बैठकर योजनायें बनाना तो पसंद करता है लेकिन उन मलिन बस्तियों में जाने से गुरेज करता है जहाँ कि समाज-सेवा की वास्तविक आवश्यकता है । इसके विपरीत ईश्वर संसार के सबसे अपवित्र पदार्थ में भी रहकर उसे हमारे लाभ के लिए नियंत्रित करता है ।
(4) क्यूंकि एक मात्र वही शुद्ध्स्वरूप है इसलिए उसके हर वस्तु में होने और हर वस्तु के उसमे होने के बावजूद भी वह सबसे भिन्न और पृथक है । प्रश्न- क्या ईश्वर दयालु और न्यायकारी है ? उत्तर- हाँ! वह दया और न्याय का साक्षात् उदहारण है ।
प्रश्न 6: लेकिन यह दोनों गुण तो एक दुसरे के विपरीत हैं । दया का अर्थ है किसी का अपराध क्षमा कर देना और न्याय का अर्थ है अपराधी को दंड देना । ये दोनों गुण एक साथ कैसे हो सकते हैं…???
उत्तर- दया और न्याय वास्तव में एक ही हैं । क्यूंकि दोनों का उद्देश्य एक ही है।
(1) दया का अर्थ अपराधी को क्षमा कर देना नहीं है । क्यूंकि अगर ऐसा हो तो बहुत से निर्दोष लोगों के प्रति अत्याचार होगा । इसलिए जब तक अपराधी के साथ न्याय नहीं किया जायेगा तब तक निर्दोष लोगों पर दया नहीं हो सकती । और अपराधी को क्षमा करना, यह अपराधी के प्रति भी दया नहीं होगी क्यूंकि ऐसा करने से उसे आगे अपराध करने के लिए बढ़ावा मिलेगा। उदाहरण के लिए, अगर एक डाकू को बिना दंड दिए छोड़ दिया जाये तो वह अनेक निर्दोषों को हानि पहुंचाएगा । किन्तु यदि उसे कारगर में रखा जाये तो इससे वह न सिर्फ दूसरों को हानि पहुँचाने से रुकेगा बल्कि उसे खुद को सुधारने का एक मौका मिलेगा और वह आगे अपराध नहीं कर पायेगा । इसलिए न्याय में ही सबके प्रति दया निहित है ।
(2) वास्तव में दया इश्वर का उद्देश्य है और न्याय उस उद्देश्य को पूरा करने का तरीका है । जब इश्वर किसी अपराधी को दंड देता है तो वास्तव में वह उसे आगे और अपराध करने से रोकता है । और निर्दोषों की उनके अत्याचारों से रक्षा करता है । इस प्रकार न्याय का मुख्य उद्देश्य सबके प्रति दया करना है ।
(3) वेदों के अनुसार और जो कुछ हम संसार में देखते हैं उसके अनुसार भी दुःख का मूल कारण अज्ञान है, यही अज्ञान दुष्कर्मों को जन्म देता है जिन्हें की हम अपराध कहते हैं । इस्ल्ये जब कोई जीव दुष्कर्म करता है तो ईश्वर उसकी दुष्कर्म करने की स्वतंत्रता को बाधित कर देता है और उसे अपनी अज्ञानता और दुखों को दूर करने का मौका देता है ।
(4) माफ़ी मांग लेने भर से ईश्वर अपराधों को क्षमा नहीं कर देता । पापों और अपराधों का मूल कारण अज्ञानता का होना है और जब तक वो नहीं मिट जाता तब तक जीव कई जन्मों तक निरंतर अपने अच्छे और बुरे कर्मों के फल को भोगता रहता है । और इस सब न्याय का उद्देश्य जीव के प्रति दया करना है जिससे की वह परम आनंद को भोग सके ।
प्रश्न 7: तो क्या इसका अर्थ ये है कि ईश्वर मेरे पापों को कभी भी क्षमा नहीं करेगा…?? इससे तो इस्लाम और ईसाइयत अच्छे हैं। वहां अगर मैं अपने अपराध क़ुबूल कर लूं या माफ़ी मांग लूं तो मेरे पिछले सारे गुनाहों के दस्तावेज नष्ट कर दिए जाते हैं और मुझे नए सिरे से जीने का अवसर मिल जाता है ।
उत्तर – (1) ईश्वर तुम्हारे पापों को वास्तव में क्षमा तो करता है । ईश्वर की माफ़ी तुम्हारे कर्मों का न्यायपूर्वक फल देने में ही निहित है न कि पिछले कर्मों के दस्तावेज नष्ट कर देने में ।
(2) अगर वह तुम्हारे गुनाहों के दस्तावेज नष्ट कर दे तो यह उसका तुम्हारे प्रति घोर अन्याय और क्रूरता होगी । यह ऐसा ही होगा जैसे कि तुम्हे तुम्हारी वर्तमान कक्षा की योग्यता प्राप्त किये बिना ही अगली कक्षा के लिए प्रोन्नत कर देना । ऐसा करके वह तुमसे जुड़े हुए अन्य व्यक्तियों के साथ भी अन्याय करेगा।
(3) क्षमा करने का अर्थ होता है एक नया अवसर देना न कि 100% अंक दे देना जबकि आप 0 की पात्रता रखते हों । और ईश्वर यही करता है । और याद रखिये कि योग्यता का बढ़ना कोई एक पल में नहीं हो जाता, और न ही माफ़ी मांग लेने से योग्यता बढ़ जाती है । इसके लिए लम्बे समय तक समर्पण के साथ अभ्यास करना पड़ता है । केवल प्रमादी व्यक्ति ही बिना पूरा अध्ययन किये 100% अंक लेने के तरीके खोजते हैं ।
(4) यह दुर्भाग्य की बात है कि जो लोग ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के नाम पर लोगों को अपने मत/ सम्प्रदायों की ओर आकर्षित करते हैं वो खुद को और दूसरों को बेवकूफ बना रहे हैं। मान लीजिये किसी को मधुमेह की समस्या है क्या वह माफ़ी मांगने से ठीक हो सकती है ? जब एक शारीरिक समस्या का उपचार करने के लिए माफ़ी मांगना पर्याप्त नहीं है तो फिर मन जो कि मनुष्य को ज्ञात संसार का सबसे जटिल तंत्र है उसका उपचार मात्र एक माफ़ी मांग लेने से कैसे हो सकता है ।
(5) वास्तव में इनके सिद्धांतों में एक स्पष्ट त्रुटि/दोष है और वो ये है कि ये सिर्फ एक जन्म में विश्वास रखते हैं पुनर्जन्म में नहीं । इसलिए वो लोगों को आकर्षित करने के लिए ईश्वर तक पहुँचने के झूठे तरीके गढ़ना चाहते हैं। और अगर कोई उनकी बात न माने तो उसे नरक की झूठी कहानियां सुनाकर डराते हैं। अपने लेख Is God testing us? के द्वारा हम पहले ही एक जन्म वाली अवधारणा की खामियों को उजागर कर चुके हैं ।
(6) वैदिक दर्शन अधिक सहज, वास्तविकता के अनुरूप और तार्किक है । उसमे न कोई नरक है जहाँ माँ के समान प्रेम करने वाला ईश्वर आपको हमेशा के लिए आग में जलने के लिए डाल देगा और न ही वो आपको अपने प्रयासों के द्वारा अपनी योग्यता बढाने और अपनी योग्यता के अनुरूप उपलब्धियां प्राप्त करने के अवसरों से वंचित करेगा । आप खुद ही देह्खिये की क्या अधिक संतोषप्रद होगा: (अ) आपको सर्वोच्च अंक दिलाने वाला झूठा अंकपत्र, जबकि आप जानते हैं की वास्तव में आपको 0 प्राप्त हुआ है । (ब) दिन रात कठिन परिश्रम करके प्राप्त किये गए सर्वोच्च अंक, जबकि आप जानते हैं कि आपने विषय में विशेषज्ञता अर्जित करने के लिए अपनी ओर से अधिकतम प्रयास किया । इसलिए वेदों में सफलता के लिए कोई आसान या कठिन रास्ते नहीं हैं वहां तो केवल एक ही सही मार्ग है ! और सफलता उन सबसे अधिक संतोष दायक है जो कि इन छद्म आसान रास्तों पर चलने से प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है ।
प्रश्न 8: ईश्वर साकार है या निराकार…???
उत्तर- वेदों के अनुसार और सामान्य समझ के आधार पर भी ईश्वर निराकार है ।
(1) अगर वो साकार है तो हर जगह नहीं हो सकता । क्यूंकि आकार वाली वस्तु की अपनी कोई न कोई तो परिसीमा होती है । इसलिए अगर वो साकार होगा तो वह उस परिसीमा के बाहर नहीं होगा ।
(2) हम ईश्वर के आकार को देख पायें यह यह तभी संभव है जब कि वह स्थूल हो। क्यूँकि प्रकाश को परावर्तित करने वाले पदार्थों से सूक्ष्म पदार्थों को देखा नहीं जा सकता । किन्तु वेदों में ईश्वर को स्पष्ट रूप से सूक्ष्मतम, छिद्रों से रहित तथा एकरस कहा है (यजुर्वेद 40.8) । इसलिए ईश्वर साकार नहीं हो सकता ।
(3) ईश्वर साकार है तो इसका अर्थ है कि उसका आकार किसी ने बनाया है । लेकिन ये कैसे हो सकता है क्यूंकि उसीने तो सबको बनाया है तो उससे पहले तो कोई था ही नहीं तो फिर उसे कोई कैसे बना सकता है । और अगर ये कहें कि उसने खुद अपना आकार बनाया तो इसका अर्थ हुआ कि उसके पहले वो निराकार था ।
(4) और अगर आप ये कहें की ईश्वर साकार और निराकार दोनों है तो यह तो कैसे भी संभव नहीं है क्यूंकि ये दोनों गुण एक ही पदार्थ में नहीं हो सकते ।
(5) और अगर आप ये कहें कि ईश्वर समय समय पर दिव्य रूप धारण करता है तो कृपया ये भी बता दें कि किसका दिव्य रूप लेता है क्यूंकि अगर कहें कि ईश्वर मनुष्य का दिव्य रूप धारण करता है तो आप ईश्वरीय परमाणु और अनीश्वरीय परमाणु की सीमा कैसे निर्धारित करेंगे ? और क्यूंकि ईश्वर सर्वत्र एकरस (एक समान ) है तो फिर हम मानवीय- ईश्वर और शेष संसार में अंतर कैसे करें ? और यदि हर जगह एक ही ईश्वर है तो फिर हम सीमा कैसे देख रहे हैं ?
(6) वास्तव में जो मानव शरीर हम देख रहे हैं ये द्रव्य और ऊर्जा का शेष संसार के साथ निरंतर स्थानान्तरण है । किसी परमाणु विशेष के लिए यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि ये मानव शरीर का है या शेष संसार का । इसलिए मानवीय-ईश्वर के शरीर तक को अलग नहीं किया जा सकता। उदहारण के लिए, क्या उसके थूक, मल, मूत्र, पसीना आदि भी दिव्य होंगे ?
(7) वेदों में कहीं पर भी साकार ईश्वर की अवधारणा नहीं है । और फिर ऐसा कोई काम नहीं है जो की ईश्वर बिना शरीर के न कर सके और जिसके लिए कि उसे शरीर में आने की आवश्यकता हो ।
(8) जिन्हें हम ईश्वर के दिव्य रूप मानते हैं जैसे कि राम और कृष्ण, वास्तव में वो दिव्य प्रेरणा से कर्म करने वाले थे । याद कीजिये कि हमने ‘अंतरात्मा की आवाज़’ के बारे में बात की थी । ये महापुरुष ईश्वर भक्ति तथा पवित्र मन का साक्षात् उदहार…..
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