गीतोपनिषद द्वारा आत्म-बोध…..(…34…) ॐ नमो भगवते वासुदेवाय……

…श्रीमद्भगवतगीता में जगत गुरु श्री कृष्ण जी अर्जुन को आत्मबोध की शिक्षा देते हुए कहते हैं कि आध्यात्मिक जगत भौतिक जगत के बिलकुल विपरीत है भौतिक जगत में जो सब जीवों के लिए रात्रि है आध्यात्मिक जगत में वह आत्मसयंमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों के लिए जागने का समय है, वे आत्मनिरीक्षक जीव के लिए रात्रि है।
बुद्धिमान मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं एक श्रेणी के लोग इन्द्रियतृप्ति के लिए भौतिक कार्य करने में निपुण होते हैं और दूसरी श्रेणी के मनुष्य आत्मनिरीक्षक होते हैं जो आत्मसाक्षत्कार के अनुशीलन के लिए जागते हैं । भौतिक संसार के प्रति आकर्षित मनुष्य नदियों के समान है जो कहीं से भी रास्ता बना कर सागर से मिलने की अपनी इच्छा को पूर्ण करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और आत्म बोध के प्रति जागृत मनुष्य सागर की तरह स्थिर रहता है । वर्षा ऋतु में नदियां अपने बाँध तोड़ देती हैं परन्तु सागर में कितनी भी नदियां क्यों न मिल जाएँ । सागर अपने तट की सीमा का उल्लंघन नहीं करता । आत्मबोध  के छात्र की यही विशेषता है कि इच्छाओं  के होते हुए भी वह संयम में रहता है ।
भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति के प्रति संतुष्ट रहता है ।
वह सागर तुल्य होता है । अपने आप में ही सदैव पूर्ण रहता है और पूर्ण शान्ति का आनंद लेता  है । बुद्धियोग में रह कर मनुष्य ब्रह्मविद्या को समझने का प्रयत्न करता है और भौतिक इच्छाओं को सरलता पूर्वक वश में कर सकता है ।
स्वयं को समझने के लिए भगवान श्री कृष्ण जी ने उल्लेख किया है…. सांख्य योग और कर्म योग । सांख्य योग द्वारा आत्मा और प्रकृति का अध्ययन उन लोगों के लिए है जो व्यावहारिक ज्ञान तथा दर्शन द्वारा भगवान का चिंतन करना चाहते हैं। कर्म योग में कर्म तो सबको ही करना है और जो अपना हर कर्म प्रभु को अर्पण कर देते हैं ।वह सच्चे कर्म योगी हो जाते हैं ।
उसका हर कार्य प्रभु को अर्पित कर देने से शुद्ध हो जाता है। भगवान कहते हैं कि न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न ही केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। यदि कोई भगवान की दिव्य सेवा करता है तो वह भौतिक संसार  में रहते हुए भी सन्यासी है ।

श्लोक : श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप — 7.4 अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान

भूमिरापोSनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || ४ ||

भूमिः – पृथ्वी; आपः – जल; अनलः – अग्नि; वायुः – वायु; खम् – आकाश; मनः – मन; बुद्धिः – बुद्धि; एव – निश्चय ही; च – तथा; अहंकार – अहंकार; इति – इस प्रकार; इयम् – ये सब; मे – मेरी; भिन्ना – पृथक्; प्रकृतिः – शक्तियाँ; अष्टधा – आठ प्रकार की |

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपर) प्रकृतियाँ हैं |

तात्पर्य : ईश्र्वर-विज्ञान भगवान् की स्वाभाविक स्थिति तथा उनकी विविध शक्तियों का विश्लेषण है | भगवान् के विभिन्न पुरुष अवतारों (विस्तारों) की शक्ति को प्रकृति कहा जाता है, जैसा कि सात्वततन्त्र में उल्लेख मिलता है –

विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरूषाख्यान्यथो विदुः |
एकं तु महतः स्त्रष्टृ द्वितीयं त्वण्डसंस्थितम् |
तृतीयं सर्वभूतस्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते ||

“सृष्टि के लिए भगवान् कृष्ण का स्वांश तीन विष्णुओं का रूप धारण करता है | पहले महाविष्णु हैं, जो सम्पूर्ण भौतिक शक्ति महत्तत्व को उत्पन्न करते हैं || द्वितीय गर्भोदकशायी विष्णु हैं, जो समस्त ब्रह्माण्डों में प्रविष्ट होकर उनमें विविधता उत्पन्न करते हैं | तृतीय क्षीरोदकशायी विष्णु हैं जो समस्त ब्रह्माण्डों में सर्वव्यापी परमात्मा रूप में फैले हुए हैं और परमात्मा कहलाते हैं | वे प्रत्येक परमाणु तक के भीतर उपस्थित हैं | जो भी इस तीनों विष्णु रूपों को जानता है, वह भवबन्धन से मुक्त हो सकता है |”

यह भौतिक जगत् भगवान् की शक्तियों में से एक का क्षणिक प्राकट्य है | इस जगत् की सारी क्रियाएँ भगवान् कृष्ण के इन तीनों विष्णु अंशों द्वारा निर्देशित हैं | ये पुरुष अवतार कहलाते हैं | सामान्य रूप से जो व्यक्ति ईश्र्वर तत्त्व (कृष्ण) को नहीं जानता, वह यह मान लेता है कि यह संसार जीवों के भोग के लिए है और सारे जीव पुरुष हैं – भौतिक शक्ति के कारण, नियन्ता तथा भोक्ता हैं | भगवद्गीता के अनुसार यह नास्तिक निष्कर्ष झूठा है | प्रस्तुत श्लोक में कृष्ण को इस जगत् का आदि कारण माना गया है | श्रीमद्भागवत में भी इसकी पुष्टि होती है | भगवान् की पृथक्-पृथक् शक्तियाँ इस भौतिक जगत् के घटक हैं | यहाँ तक कि निर्विशेषवादियों का चरमलक्ष्य ब्रह्मज्योति भी एक अध्यात्मिक शक्ति है, जो परव्योम में प्रकट होती है | ब्रह्मज्योति में वैसी भिन्नताएँ नहीं, जैसी कि वैकुण्ठलोकों में हैं, फिर भी निर्विशेषवादी इस ब्रह्मज्योति को चरम शाश्र्वत लक्ष्य स्वीकार करते हैं | परमात्मा की अभिव्यक्ति भी क्षीरोदकशायी विष्णु का एक क्षणिक सर्वव्यापी पक्ष है | आध्यात्मिक जगत् में परमात्मा की अभिव्यक्ति शाश्र्वत नहीं होती |अतः यथार्थ परमसत्य तो श्रीभगवान् कृष्ण हैं | वे पूर्ण शक्तिमान पुरुष हैं और उनकी नाना प्रकार की भिन्ना तथा अन्तरंगा शक्तियाँ होती हैं |

जैसा की ऊपर कहा जा चुका है, भौतिक शक्ति आठ प्रधान रूपों में व्यक्त होती है | इनमें से प्रथम पाँच – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश स्थूल अथवा विराट सृष्टियाँ कहलाती हैं, जिनमें पाँच इन्द्रियविषय, जिनके नाम हैं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, तथा गंध – सम्मिलित रहते हैं | भौतिक विज्ञान में ये ही दस तत्त्व हैं | किन्तु अन्य तीन तत्त्वों को, जिनके नाम मन, बुद्धि तथा अहंकार हैं, भौतिकतावादी उपेक्षित रखते हैं | दार्शनिक भी, जो मानसिक कार्यकलापों से संबंध रखते हैं, पूर्णज्ञानी नहीं है, क्योंकि वे परम उद्गम कृष्ण को नहीं जानते | मिथ्या अहंकार – ‘मैं हूँ’ तथा ‘यह मेरा है’ – जो कि संसार का मूल कारण है इसमें विषयभोग की दस इन्द्रियों का समावेश है | बुद्धि महत्तत्व नामक समग्र भौतिक सृष्टि की सूचक है | अतः भगवान् की आठ विभिन्न शक्तियों से जगत् के चौबीस तत्त्व प्रकट हैं, जो नास्तिक सांख्यदर्शन के विषय हैं | ये मूलतः कृष्ण की शक्तियों की उपशाखाएँ हैं और उनसे भिन्न हैं, किन्तु नास्तिक सांख्य दार्शनिक अल्पज्ञान के कारण यह नहीं जान पाते कि कृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं | जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है, सांख्यदर्शन की विवेचना का विषय कृष्ण की बहिरंगा शक्ति का प्राकट्य है |

गीतोपनिषद द्वारा आत्म-बोध…..(…31…) ॐ नमो भगवते वासुदेवाय……

श्रीमद्भगवद्गगीता में श्री कृष्ण जी से अर्जुन आत्म बोध की शिक्षा ग्रहण करते हुए पूछते हैं कि अध्यात्म में लीन चेतना वाले व्यक्ति ( स्थितप्रज्ञ ) के क्या लक्षण हैं तो भगवान कृष्ण समझाते हुए कहते हैं कि जो व्यक्ति त्रय तापों के होने पर भी मन में विचलित नहीं होता अथवा सुख में अति प्रसन्न नहीं होता । जो आसक्ति ,भय और क्रोध से मुक्त है, ऐसा स्थिर मन वाला व्यक्ति मुनि कहलाता है ।
मुनि शब्द का अर्थ है  ऐसा व्यक्ति जो अपने मन में ही मन के भावों का शुष्क चिंतन करे और मन की स्थिर अवस्था को पूर्ण करे । इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि परमात्मा ही सम्पूर्ण सृष्टि के मालिक हैं ।ऐसा व्यक्ति स्थिरचित्त मुनि कहलाता है ।
यदि वह कष्ट में होता है तो चिंतन द्वारा अपना मानसिक और आत्मिक बल प्राप्त करता है और शारीरिक कष्ट को सहन कर लेता है और यदि वह सुखी होता है तो इसका श्रेय परमात्मा को देता है और चिंतन में प्रभु जी का ही धन्यवाद करता है ।
वह राग या विराग से प्रभावित नहीं होता । राग का अर्थ है अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुओं को ग्रहण करना और विराग का अर्थ है इन्द्रियतृप्ति के प्रति
अनासक्ति । परमात्मा में स्थिरबुद्धि व्यक्ति को न राग का मोह होता है और न विराग की चिंता ।
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति अपने संकल्प का पक्का होता है ।
इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है
और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है ।वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर रहता है।
भौतिक जगत में सदा उथल पुथल होती ही रहती है । जो ऐसी उथल पुथल से विचलित नहीं होता और शुभ या अशुभ से अप्रभावित रहता है । उसे ही आत्म  बोध का सच्चा विद्यार्थी या मुनि समझना चाहिए ।
जब तक मनुष्य भौतिक संसार में है तब तक अच्छाई  या बुराई की संभावना  रहती है क्योंकि संसार द्वन्द्वों से पूर्ण है । हर मनुष्य द्विस्वभाव  में रह कर सोचता है परन्तु स्थितप्रज्ञ व्यक्ति स्थिरबुद्धि में रहता है । अच्छाई और बुराई से अछूता रहता है क्योंकि उसका सरोकार परमात्मा से रहता है, जो सर्व मङ्गलमय
हैं । ऐसा स्थितप्रज्ञ जीव  धीरे धीरे पूर्ण ज्ञान की स्थिति प्राप्त कर लेता है ,जिसे समाधि कहते हैं ।

गीतोपनिषद द्वारा आत्म-बोध…..(…30…) ॐ नमो भगवते वासुदेवाय……

श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को आत्म बोध की शिक्षा देते हुए कहते हैं कि भौतिक संसार में मनुष्य की कामनाएं एक कूप के सामान हैं जो विशाल  जलाशय सामान परमात्मा के मात्र स्मरण से ही तुरंत पूरी हो जाती हैं ।

इस तरह आत्म बोध के पथ पर चलने वाले  विद्यार्थी के सारे प्रयोजन प्रभु कृपा से स्वयंसिद्ध हो जाते हैं । आत्म बोध की शिक्षा के अध्ययन का ध्येय अपनी पवित्र और दिव्य आत्मा के स्वरुप को जानना है । जब एक आत्म बोध के छात्र को आत्म साक्षात्कार होने लगता है तो वह आत्मा और परमात्मा के शाश्वत सम्बन्ध को समझने लगता है । उसको यह ज्ञान हो जाता है कि सारी जीवात्माएं भगवान की अंशस्वरूप हैं और प्रत्येक जीव को आत्म बोध के लिए जागृत करना ही ब्रह्म ज्ञान की सर्वोच्च पूर्णावस्था है ।
आत्म बोध की शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रचुर समय ,आत्मिक शक्ति,मानसिक बल,शुद्ध बुद्धि ,वैदिक ज्ञान और ध्यान – साधना की आवश्यकता होती है । इस युग में ऐसा कर पाना संभव नहीं है तो इसके लिए वेदांत दर्शन के परम उद्देश्य की पूर्ति भगवान श्री कृष्ण की प्रेम पूर्वक भक्ति, प्रभु के सुन्दर स्वरुप के ध्यान और पवित्र नाम के जाप करने से हो जाती है ।
श्री कृष्ण अर्जुन के माध्यम से हर जीवांश को आत्म बोध की शिक्षा देना चाहते हैं कि पृथ्वी केवल कर्म भूमि है  हर जीव को यहाँ कर्म करने का पूर्ण अधिकार है परन्तु कर्म के फलों का जीव अधिकारी नहीं है । जीव कभी भी कर्म न करने में आसक्त न हो बल्कि सदा कर्म करने में आसक्त रहे । भगवान कहते हैं आसक्ति स्वीकारात्मक हो या निषेधात्मक दोनों ही बंधन का कारण हैं । निष्काम कर्म करना ही जीव का परम धर्म है जो जीव को निसंदेह मुक्ति के पथ की ओर ले जाता है इसलिए हर जीवांश को जय या पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करना चाहिए और स्वामित्व भाव का परित्याग करना चाहिए ।
एक आत्म बोध का विद्यार्थी सदा परमतत्व के चरणों में समर्पित रहता है । संसार में रहता हुआ भी एकांत  में रहता है । अपने अंतर्मन में आत्मा और परमात्मा के योग का दिव्य अनुभव करता हुआ सारे सांसारिक कार्य करता है ।

 

गीतोपनिषद द्वारा आत्म-बोध…..(…29…) ॐ नमो भगवते वासुदेवाय……

श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को आत्म बोध की शिक्षा देते हुए कहते हैं कि अगर कोई मनुष्य अपनी शाश्वत आत्मा को खोकर सम्पूर्ण नश्वर जगत को पा भी ले  तो इस से उसको कोई लाभ नहीं होगा । भौतिक कार्य तथा उनके फल शरीर के साथ ही समाप्त हो जाते हैं परन्तु आत्मजागृति के लिए किया गया कार्य मनुष्य के शरीर के विनष्ट होने पर भी साथ ही रहेगा । जो जीव आत्मा में रहकर कार्य करते हैं वह अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़प्रतिज्ञ रहते हैं और परमात्मा के प्रति अपार श्रद्धा और अटूट विश्वास में अपनी बुद्धि को स्थिर कर लेते हैं ।

एक आत्म बोध के विद्यार्थी की बुद्धि को स्थिर करने का निर्देशन समर्थ गुरु की कृपा द्वारा होता है । गुरु परमात्मा का प्रामाणिक प्रतिनिधि होता है जो शिष्य के स्वभाव से भली भांति परिचित होता है और शिष्य की बुद्धि को समय -समय पर सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित करता रहता है । गुरु प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष यह भी प्रभु की इच्छा पर ही निर्भर करता है कि वह अपने अंश को किस तरह सत्य का मार्ग दिखाना चाहते हैं ।
जिस विद्यार्थी का मन दृढ़ नहीं है वह विभिन्न सकाम कर्मों की और आकर्षित होता है और जो गुरु के आशीर्वाद से हर दिन एक एक पग सत्य के मार्ग की तरफ बढ़ाता जाता है वह निष्काम कर्म के मार्ग को अपनाता है ।
भौतिक प्रकृति तीन गुणों से युक्त है…१,सात्विक २ राजसिक ३ तामसिक ।
जिनका उद्देश्य कर्म-फल होता है और भौतिक जगत में करम-बंधन का कारण है । जब
आत्म- बोध का  विद्यार्थी प्रभु जी  के आशीर्वाद से भौतिक और आध्यात्मिक जगत के अंतर  को समझने लगता है तो  उसके जीवन से इन्द्रियतृप्ति के कार्य और भौतिक कर्म-काण्ड स्वतः ही समाप्त होते जाते हैं  । उसको उपनिषदों के रूप में भगवत साक्षात्कार का अवसर प्राप्त होता है । उपनिषदों से ही आध्यात्मिक जीवन का शुभारम्भ होता है ।
जब तक भौतिक शरीर का अस्तित्व है, तब तक भौतिक गुणों की क्रियाएँ – प्रतिक्रियाएं होती ही रहती हैं । एक आत्म बोध के छात्र को चाहिए कि वह सुख-दुःख और शीत-ग्रीष्म जैसी दोनों अवस्थाओं को सहन करना सीखे और हानि तथा लाभ की चिंता से मुक्त हो जाए ।
जब मनुष्य परमात्मा की इच्छा के लिए कार्य करता है और उसका मन चित्त  में स्थिर रहकर आत्मा को समझने का प्रयास करता है  । तो वह दिव्य ,पवित्र,सम्मानित और सात्विक प्रेम की अवस्था की  ओर  अपने कदम बढ़ा रहा होता है । प्रभु जी का आशीर्वाद चारों दिशाओं से वायु में सुगंध के समान आने लगता है ..

 

गीतोपनिषद द्वारा आत्म-बोध…..(…28…) ॐ नमो भगवते वासुदेवाय……

श्रीमदभगवद्गीता में श्री कृष्ण भगवान अर्जुन को आत्म बोध की शिक्षा देते हुए कहते हैं कि पुरुष या परमेश्वर क्रियाशील है और वह जड़ प्रकृति पर दृष्टिपात करके उसमें जीवात्माएं प्रविष्ट कर के सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं । इस तरह हर मनुष्य का भगवान जी से प्रत्यक्ष संपर्क है । हर हृदय में परमात्मा विध्यमान हैं परन्तु जीवन में बिना भक्ति के परमात्मा के साथ संपर्क साधना संभव नहीं हैं । श्री कृष्ण भगवान कहते हैं कि मनुष्य प्रेम केवल अस्थायी प्रेम का आभास मात्र है और जो लोग दिव्य प्रेमवश प्रभु भक्ति में निरंतर लगे रहते हैं, उन्हें ही वे स्थायी प्रेम का शुद्ध ज्ञान प्रदान करते हैं ।

प्रभु प्रेम में किया गया हर संपन्न कार्य मनुष्य का दैविक या सात्विक गुण है । परमात्मा के लिए किया गया छोटा सा कार्य भी शारीरिक,मानसिक,बौद्धिक,आत्मिक बल प्रदान करता है । परमात्मा के कार्य करने पर न आरम्भ में कोई बाधा आती है और न ही अधूरा रहता है । प्रभु जी के लिए किये गए कार्य का कभी विनाश नहीं होता और सृष्टि में स्थायी प्रभाव रहता है ।
प्रभु को समर्पित किये गए कार्य में कभी भी हानि नहीं होती अगर प्रभु के लिए १% भी कार्य पूरा कर लिया जाए तो अगले कार्य में २% की वृद्धि के साथ शुभारम्भ होता है और फिर इसमें प्रगति होती ही जाती है और  अनंत शुभता के द्वार खुलते ही जाते हैं ।
भौतिक कार्य और उनके फल शरीर के साथ ही समाप्त हो जाते हैं परन्तु प्रभु जी के लिए किया गया कार्य शरीर विनष्ट होने पर भी आत्मा द्वारा संगृहीत संस्कार  के रूप में अमर रहता हैं ।कम से कम इतना तो निश्चित है कि अगले जन्म में सुसंस्कृत और धनी मानी श्रेष्ठ कुल परिवार में आत्मा स्वस्थ शरीर के रूप में फिर से प्रभु भक्ति के सुअवसर प्राप्त करेगी ।
जो इस सोच से चलते हैं, वे जीवन में दृढ़ प्रतिज्ञ रहते हैं । भौतिक जगत में रहते हुए भी एक लक्ष्य साध कर चलते हैं और सदा सफल होते हैं ।
एक आत्म बोध का विद्यार्थी प्रभु जी के प्रति आलौकिक और अटूट विश्वास रखता है । जब वह श्री भगवान जी के लिए कार्य करता है तो वह परिवार,मानवता,जाति, धर्म और राष्ट्र में बंधकर कार्य नहीं करता उसके पूर्वकृत शुभ कर्मों  के प्रतिफल ही उसको सकाम कर्म में व्यस्त रखते हैं ।
भगवान जी की भक्ति करने वाला व्यक्ति अत्यंत दुर्लभ जीव है जो भली भांति जानता है कि भगवान ही समस्त अप्रकट और प्रकट कारणों के मूल कारण हैं । जिस तरह एक वृक्ष की जड़ सींचने से जल वृक्ष के तने,टहनियों,पत्तियों,फूलों और फलों में स्वतः ही पहुँच जाता है । उसी तरह प्रभु कर्म  में लीन मनुष्य अपना ,अपने परिवार का,समाज का,मानवता का,राष्ट्र का और पूरे  का विश्व का कल्याण करता है । मनुष्य के शुभ कर्म से प्रभु जब संतुष्ट हो जाएँ तो प्रत्येक प्राणी संतुष्ट हो जाता है ।

 

गीतोपनिषद द्वारा आत्म-बोध…..(…27…) ॐ नमो भगवते वासुदेवाय…..

श्रीमद्भगवद्गीता  में श्री कृष्ण अर्जुन को आत्म बोध की शिक्षा देते हुए कहते हैं कि हर मनुष्य परमात्मा का अंश है और पृथ्वी कर्म भूमि है इसलिए हर मनुष्य का जन्म परमात्मा की इच्छा से यहाँ परमात्मा के लिए कार्य करने के लिए ही हुआ है ।
कार्य और कर्म एक समान लगते हुए भी भिन्न हैं । कार्य क्रियाशील और जीवित है और कार्य जब समाप्त  कर लिया जाता है तो वह कर्म – बंधन बन जाता है ।
जब मनुष्य शुद्ध कार्य कर रहा होता है तो उसका ध्यान केवल कार्य पर होता है
उसको नहीं पता होता कि वह सफल होगा या असफल । इस तरह कार्य परमात्मा  की  इच्छानुसार हो रहा होता है परन्तु जैसे ही कार्य समाप्त होता है।
मनुष्य अपने कार्य के प्रति मोहग्रस्त हो जाता है अगर कार्य सफल हो जाए तो मनुष्य उसका श्रेय स्वयं को देने लग जाता है और अगर कार्य असफल हो जाए तो मनुष्य उसका श्रेय परमात्मा को देने लग जाता है ।
जबकि इसके विपरीत सोचना चाहिए अगर सफल हों तो श्रेय प्रभु जी को देना चाहिए और अगर असफल हों तो अपनी त्रुटियों को सुधारना चाहिए और फिर से प्रभु की शरण में रह कर कार्य करना चाहिए ।
मोहवश किया गया कार्य कर्म बंधन बन जाता है । कार्य करते हुए  पुराने कर्म बंधनों से छुटकारा होता जाता है और कर्म के फल के प्रति मोह के कारण नए कर्म बंधनों का निर्माण होता जाता है जो मनुष्य को पुनर्जन्म लेकर भोगना पड़ता है । इस तरह कर्म बंधनों के चक्र से जीव बाहर ही नहीं निकल पाता ।
परमात्मा और सम्पूर्ण सृष्टि एक ही हैं और मनुष्य परमात्मा या सृष्टि  की सबसे उत्तम और अनुपम कृति है, जिसके पास सोचने समझने के लिए बुद्धि है और कार्य करने के लिए शुभ हाथ हैं इसलिए मनुष्य को सदैव चेतना में रह कर कार्य करना चाहिए ।
कोई भी कार्य करने से पूर्व सृष्टि की भलाई के विषय  में अवश्य चिंतन कर लेना चाहिए क्योंकि कार्य कैसा भी हो चाहे शुभ या अशुभ पूर्वकृत कर्म बंधन कट रहे होते हैं और  भविष्य के कर्म बंधन का नवनिर्माण साथ साथ हो रहा होता है ।
अब जब मनुष्य कार्य करता है तो उस समय बहुत से लोगों का भला हो रहा होता है और बहुत से लोगों को कष्ट भी हो रहा होता है । अगर दूसरों का भला अधिक हो रहा हो तो उस  कार्य का प्रतिफल पुण्य कर्म हो जाता है जिसका इनाम  परमात्मा सुखों के रूप में देते हैं और अगर दूसरों को अधिक कष्ट हो रहा हो तो उस  कार्य का प्रतिफल पाप कर्म हो जाता है, जिसका दंड दुःखस्वरुप भोगना पड़ता है ।
एक आत्म बोध का विद्यार्थी श्री कृष्ण द्वारा बताई गयी शिक्षा का अनुसरण
करता है कि चाहे दुःख हो या सुख ,हानि हो या लाभ,विजय हो या पराजय,
प्रेम मिले या तिरस्कार — यह विचार किये बिना जीव  निष्ठापूर्वक कार्यरत रहता है । केवल एक विचार मन और बुद्धि में पक्का कर लेना चाहिए कि मनुष्य जो भी कार्य करने जा रहा है इस से सृष्टि , समाज और सम्पूर्ण मानव जाति का  कल्याण होना चाहिए । इस तरह वो प्रभु जी के लिए कार्य कर रहा है और वह पुण्य या पाप के कर्म बंधन से मुक्त रहेगा ।
जो जीव श्री कृष्ण की शरण ग्रहण कर लेता है और परमात्मा रुपी सृष्टि के लिए
कार्य करता है । वह न तो किसी का ऋणी है और न ही किसी का कृतज्ञ -चाहे वह देवता,साधु,गुरु,परिजन,सामान्यजन,मानवजाति ,या उनके पितर ही क्यों न हों ।
वह कार्य करता हुआ भी कर्म बंधन से मुक्त रहता है और  प्रभु चिंतन करता हुआ सदा के लिए प्रभु की शरण में ही रहता है ।
सदैव स्वंतत्र रूप में कार्य करता है । ऐसा प्रभु भक्त केवल प्रभु की अधीनता में कार्य करता है  ।
स्वयं भी सुखी और मुक्त रहता है और प्रभु जी के आशीर्वाद से दूसरों को भी सुख देता है और मानसिक तनाव से मुक्त करता है ।

गीतोपनिषद द्वारा आत्म-बोध…..(…26…) ॐ नमो भगवते वासुदेवाय…..

.श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को गुडाकेश कहा । गुडाकेशा का अर्थ है- जिसने निद्रा पर विजय प्राप्त कर ली हो ,अर्जुन ने निद्रा पर विजय प्राप्त कर ली थी।

निद्रा का अर्थ हुआ अज्ञान और निद्रा पर विजय का अर्थ हुआ अज्ञान पर विजय अर्थात ज्ञान के प्रकाश में रहना । अर्जुन को श्री कृष्ण जी ने अपना सर्वप्रिय शिष्य माना था तभी उसको आत्म – बोध का सन्देश स्वयं प्रभु जी ने दिया ।
इस तरह प्रत्येक जीव चाहे वह प्रकट रूप में हो या अप्रकट रूप में आत्म- बोध की शिक्षा ही ग्रहण कर रहा है । हर जीव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में आत्म ज्ञान ही प्राप्त कर रहा है क्योंकि जीवन का चरम लक्ष्य स्वयं को जानना है ।
हर जीव प्रकट और अप्रकट है । जिनको हम जानते हैं वो प्रकट हैं और जिनको नहीं जानते वो अप्रकट है परन्तु सब का आत्मिक रूप एक जैसा कोमल भावनाओं से भरा है । सब एक दूसरे की प्रकट या अप्रकट रूप में सहायता कर रहे हैं ।
कोई भी व्यक्ति आत्मा के अध्ययन द्वारा परमात्मा के स्वभाव को समझ सकता है । परमात्मा प्रकट भी हैं और अप्रकट भी। जिस प्रकार आकाश से वायु उत्पन्न होती है- आकाश प्रकट है परन्तु वायु अप्रकट है ,वायु से अग्नि उत्पन होती है, यहाँ भी वायु अप्रकट है और अग्नि प्रकट ,अग्नि से जल प्रकट होता है, यहाँ जल प्रकट है परन्तु अग्नि अप्रकट हो गयी और जल से पृथ्वी प्रकट हुई और जल पृथ्वी  में समा कर अप्रकट हो गया और वनस्पतियां प्रकट हो गयी । अब वनस्पतियों के अप्रकट होने पर मानव प्रकट होता है। पृथ्वी के प्रकट होने पर केवल आकाश ही प्रकट रहता है । इस तरह पृथ्वी अप्रकट हो या प्रकट आकाश प्रकट ही रहता है ।
इस तरह हर जीव या वस्तु शक्ति सरंक्षण के नियम में रहता है और कालक्रम से प्रकट और अप्रकट होते रहते हैं अतः एक आत्म बोध का विद्यार्थी आत्म बोध का ज्ञान प्राप्त करते हुए यह स्पष्ट रूप से जान लेता है कि जीव या अन्य वस्तुएं अप्रकट अवस्था में भी समाप्त नहीं होती । हर वस्तु आरम्भ होने से पूर्व अप्रकट रहती है  और समाप्त होने पर दोबारा अप्रकट हो जाती है ।  फिर से मध्य में प्रकट हो कर आरम्भ हो जाती है और फिर मध्य में ही अप्रकट हो कर समाप्त हो जाती है.।
भौतिक शरीर कालक्रम में नाशवान है किन्तु आत्मा शाश्वत है । आत्मा अप्रकट है और शरीर प्रकट है । जब शरीर मृत्यु को प्राप्त होता है तो शरीर अप्रकट हो जाता है और आत्मा प्रकट रूप में फिर से प्रकट आकाश में ही विद्यमान रहती है ।इस तरह पूरी सृष्टि एक हो जाती है ,एकाकार है।
आत्मा पुनः दूसरा शरीर धारण करके फिर से पृथ्वी पर प्रकट हो जाती है ।एक आत्म बोध का विद्यार्थी  शाश्वत आत्मा का सम्मान करता है ।   नाशवान शरीर के प्रति आसक्त नहीं होता और न ही इसके अप्रकट होने पर शोक करता है ।

 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥
भावार्थ :- हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

भावार्थ :- साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः । त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥

भावार्थ :- हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से (सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दन परमात्मा अज, अविनाशी और सर्वभूतों के परम गति तथा परम आश्रय हैं, वे केवल धर्म को स्थापन करने और संसार का उद्धार करने के लिए ही अपनी योगमाया से सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं। इसलिए परमेश्वर के समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, ऐसा समझकर जो पुरुष परमेश्वर का अनन्य प्रेम से निरन्तर चिन्तन करता हुआ आसक्तिरहित संसार में बर्तता है, वही उनको तत्व से जानता है।) जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है॥

 

गीतोपनिषद द्वारा आत्म-बोध…..(…24…) ॐ नमो भगवते वासुदेवाय……

श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण भगवान अपने प्रिय शिष्य को आत्म-बोध की शिक्षा देते हुए कहते हैं कि सारे जीव परमात्मा से विलग हुए अंश हैं । जीव सनातन अणु आत्मा  है । शरीर प्रकृति की देन है  ।   अतः माया के प्रभाव में रहना उसका प्राकृतिक स्वभाव है । सुन्दर माया के मोह में जीव भगवान की संगति से पृथक हो जाता है ।
अर्जुन श्री कृष्ण के दिव्य उपदेशों के कारण सांसारिक मोह से मुक्त तो हो गया परन्तु कभी भी श्री कृष्ण से एकाकार नहीं हुआ ।
भगवान श्री कृष्ण आत्मा के विषय में बताते हैं कि आत्मा को न तो किसी शास्त्र से खंड -खंड किया जा सकता है,न पृथ्वी  इसको अपने भीतर समा  सकती है, न अग्नि इसको जला  सकती है,न जल इसको डुबो सकता है,न वायु इसको सुखा सकती है । यह शाश्वत ,अव्यक्त,अकल्पनीय सर्वव्यापी, अघुलनशील ,अपरिवर्तनीय  अविकारी स्थिर प्रकाशित और सदैव एक स्वरुप में रहने वाली है ।
आत्मा इतनी सूक्ष्म है कि इसको सर्वाधिक शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यन्त्र द्वारा भी नहीं देखा जा सकता अतः आत्मा परमात्मा के समान  अदृश्य है । परन्तु आत्मा कभी परमात्मा नहीं हो सकती । आत्मा चेतना है और चेतना परमात्मा का अंश मात्र है ।
इसको सूर्य द्वारा समझ सकते हैं जिस प्रकार सूर्य ब्रह्माण्ड  में प्रयत्क्ष प्रकाश शक्ति है और सृष्टि में किरणों का विस्तार करने की शक्ति केवल सूर्य में है । सूर्य अपनी शक्ति का ह्रास किये बिना पूरी सृष्टि को ऊष्मा और प्रकाश प्रदान करते हैं । सूर्य की किरणों में भी सूर्य समान ऊष्मा और प्रकाश होता है परन्तु किरणें कभी सूर्य नहीं बन सकती  जबकि  किरणें  सूर्य की अभिन्न  शक्ति हैं ।
ठीक वैसे ही आत्मा परमात्मा की अभिन्न  शक्ति है । परमात्मा आत्मा का विस्तार करते हैं परन्तु आत्मा परमात्मा नहीं हो सकती । आत्मा केवल परमात्मा का अंश है जैसे सूर्य की किरणों में ऊष्मा और प्रकाश केवल सूर्य की कृपा है ठीक वैसे ही आत्मा में जागृति केवल परमात्मा के आशीर्वाद से है जिस तरह सूर्य की किरणें सूर्य के अधीन हैं ,उसी तरह आत्मा परमात्मा के अधीन है आत्मा में शरीर जैसे परिवर्तन नहीं होते ।
अविकारी रहते हुए भी आत्मा परमात्मा के तुल्य अणु रूप है शरीर प्रकृति की देन है इसलिए प्रकृति को समर्पित  होना उसकी नियति है और आत्मा परमात्मा का अंश है इसलिए आत्मा परमात्मा से ही प्रेम करती है और परमात्मा के आदेश पर संसार के प्रति निर्मोह रखने वाली आत्मा तुरंत परमात्मा में ही समा जाती है ।
संसार में एक आत्म बोध का विद्यार्थी पाने के हर्ष से और खोने के शोक से मुक्त रहता है   और समय के बंधन से परे रहकर केवल अपने श्रेष्ठ कर्म के प्रति सजग रहता है।