महर्षि मुद्गल

महर्षि मुद्गल एकांत जंगल में रहकर भगवान की पूजा-उपासना करते थे| शेष समय वनवासियों की सेवा में लगाते थे| दीन दुखियों व रोगियों की सेवा में उन्हें बहुत आनंद मिलता था| जब कोई अतिथि आश्रम में आता तो वे उसका भी पूरा सत्कार करते थे| एक दिन ऋषि दुर्वासा आश्रम में आए| महर्षि मुद्गल ने उनकी बहुत सेवा की| उन्हें फल आदि से खूब तृप्त किया| ऋषि दुर्वासा ने आशीर्वाद देते हुए कहा कि आप जैसा त्यागी, तपस्वी तथा सेवाभाव वाला संत पृथ्वी पर दूसरा नहीं है| आपको शीघ्र ही स्वर्ग में उच्च स्थान प्राप्त होगा| एक दिन इन्द्र ने अपने दूत को उनके पास भेजा| उस समय महर्षि मुद्गल एक बीमार बनवासी की सेवा कर रहे थे| दूत ने कहा, “देवराज आपकी तपस्या से बहुत प्रसन्न हैं| आप मेरे साथ स्वर्ग चलिए|” महर्षि ने दूत से पूछा,“क्या मैं स्वर्ग में बीमारों की सेवा कर सकूंगा ?” देवदूत ने जवाब दिया, “वहां आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा| संचित पुण्यों का फल सिर्फ आनंदपूर्वक भोगना होगा|” महर्षि ने उत्तर दिया, “मैं बिना सेवा के एक क्षण भी नहीं रह सकता| यहां भूलोक में भगवान की पूजा करता हूं| रोगियों की सेवा कर आत्मिक आनंद प्राप्त करता हूं| आप देवराज इन्द्र को मेरी ओर से कृतज्ञता व्यक्त कर दें तथा उनसे कहें कि मुद्गल ने ऐसे स्वर्ग में प्रवेश करने से इनकार कर दिया है जिसमें उसे सेवा से वंचित रहना पड़े|”

[ पुण्य- कर्मों का अर्जन कर जिस स्वर्गलोक को प्राप्त किया जाता है, उसके भोग भी नष्ट होने वाले हैं| इसीलिए तृष्णा के क्षय को ही संतो ने ‘स्वर्ग’ कहा है| इसका निर्माण इस संसार में भी पूर्णतया संभव है|]

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