अनुसूया

अनुसूया अत्रि-ऋषि की पत्नी हैं। उनकी पति-भक्ति अर्थात् सतीत्व का तेज इतना अधिक था कि उसके कारण आकाशमार्ग से जाते देवों को उनके प्रताप का अनुभव होता था। इसी कारण उन्हें ‘सती अनुसूया’ भी कहा जाता हे। एक बार ब्रह्म, विष्णु और महेश ने उनके सतीत्व की परख करने की सोची, जो कि अपने आप में एक रोचक कथा है।

नारद जी लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती के पास पहुँचे और उन्हें अत्रि महामुनि की पत्नी अनुसूया के असाधारण पातिव्रत्य के बारे में बताया. इस पर त्रिदेवियों के मन में अनुसूया के प्रति ईर्ष्या पैदा हो गई। उन देवियों ने अनुसूया के पातिव्रत्य को नष्ट करने के लिए अपने पतियों को उनके पास भेजा।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर यतियों के वेष धर कर अत्रि के आश्रम में पहुँचे और ‘‘भवतु भिक्षां देहि” कह कर द्वार पर खड़े हो गये। उस समय तक अत्रि महामुनि अपनी तपस्या समाप्त कर आश्रम को लौटे न थे। वे अतिथि-सत्कार की जिम्मेदारी अनुसूया पर छोड़ गये थे। अनुसूया ने त्रिमूर्तियों का उचित रूप से स्वागत करके उन्हें भोजन के लिए निमंत्रित किया। उस समय कपट यति एक स्वर में बोले, ‘‘हे साध्वी, हमारा एक नियम है। तुम नग्न होकर परोसोगी, तभी जाकर हम भोजन करेंगे।”

अनुसूया ने ‘ओह, ऐसी बात है’ यह कहते हुए उन पर जल छिड़क दिया। इस पर तीनों अतिथि तीन प्यारे शिशुओं के रूप में बदल गये। अनुसूया के हृदय में वात्सल्य भाव उमड़ पड़ा। शिशुओं को दूध-भात खिलाया। त्रिमूर्ति शिशु रूप में अनुसूया की गोद में सो गये। अनुसूया तीनों को झूले में सुला कर बोली-‘‘तीनों लोकों पर शासन करने वाले त्रिमूर्ति मेरे शिशु बन गये, मेरे भाग्य को क्या कहा जाये। ब्रह्माण्ड ही इनका झूला है। चार वेद उस झूले के पलड़े की जंजीरें हैं। ओंकार प्रणवनाद ही इन के लिए लोरी है।” यों वह मधुर कंठ से लोरी गाने लगी।

उसी समय कहीं से एक सफ़ेद बैल आश्रम में पहुँचा, और द्वार के सम्मुख खड़े होकर सर हिलाते हुए उसने पायलों की ध्वनि की। एक विशाल गरुड़ पंख फड़फड़ाते हुए आश्रम पर फुर्र से उड़ने लगा। एक राजहंस विकसित कमल को चोंच में लिए हुए आया और आकर द्वार पर उतर गया। उसी समय महती वीणा पर नीलांबरी राग का आलाप करते हुए नारद और उनके पीछे लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती आ पहुँचे। नारद अनुसूया से बोले- ‘‘माताजी, अपने पतियों से संबंधित प्राणियों को आपके द्वार पर पाकर ये तीनों देवियाँ यहाँ पर आ गई हैं। ये अपने पतियों के वियोग के दुख से तड़प रही हैं। इनके पतियों को कृपया इन्हें सौंप दीजिए।”
अनुसूया ने विनयपूर्वक तीनों देवियों को प्रणाम करके कहा- ‘‘माताओ, उन झूलों में सोने वाले शिशु अगर आप के पति हैं तो इनको आप ले जा सकती हैं।” तीनों देवियों ने चकित होकर देखा। एक समान लगने वाले तीनों शिशु गाढ़ी निद्रा में सो रहे थे। इस पर लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती संकोच करने लगीं, तब नारद ने उनसे पूछा-‘‘आप क्या अपने पति को पहचान नहीं सकतीं? आप लजाइये नहीं, जल्दी गोद में उठा लीजिये।” देवियों ने जल्दी में एक-एक शिशु को उठा लिया।

वे शिशु एक साथ त्रिमूर्तियों के रूप में खडे हो गये। तब उन्हें मालूम हुआ कि सरस्वती ने शिवजी को, लक्ष्मी ने ब्रह्मा को और पार्वती ने विष्णु को उठा लिया है। तीनों देवियाँ शर्मिंदा होकर दूर जा खड़ी हो गईं। इस पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर इस तरह सटकर खड़े हो गये, मानो तीनों एक ही मूर्ति के रूप में मिल गये हों।

उसी समय अत्रि महर्षि अपने घर लौट आये। अपने घर त्रिमूर्तियों को पाकर हाथ जोड़ने लगे। त्रिमूर्तियों ने प्रसन्न होकर अत्रि एवं अनुसूया को वरदान दिया कि वे सभी स्वयं उनके पुत्र के रूप में अवतार लेंगे ।कालांतर में त्रिमूर्तियों के अंश से अत्रि के तीन पुत्र हुए – सोम (ब्रह्मा), दत्तात्रेय (विष्णु) और दुर्वासा (शिव)। कहीं कहीं दत्तात्रेय को त्रिमूर्तियों का समुच्चय रूप भी कहा गया है।

 

अहिल्याबाई/Ahilya

 

 

अहिल्याबाई/Ahilya

रानी अहिल्या बाई होल्कर एक ऐसा नाम है जिसे आज भी प्रत्येक भारत वासी बडी श्रद्धा से स्मरण करता है। वें एक महान शासक और मालवा की रानी थीं। इनका जन्म सन् 1725 में हुआ था और देहांत 13 अगस्त 1795 को।

अहिल्याबाई किसी बड़े राज्य की रानी नहीं थीं लेकिन अपने राज्य काल में उन्होंने जो कुछ किया वह आश्चर्य चकित करने वाला है। वें एक बहादुर योद्धा और कुशल तीरंदाज थीं। उन्होंने कई युद्धों में अपनी सेना का नेतृत्व किया और हाथी पर सवार होकर वीरता के साथ लड़ी।

अपने जीवन काल में पति, पुत्र, पुत्री और दामाद सभी को अकाल मृत्यु का ग्रास बनते देखा। अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भी भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मंदिर बनवाए, घाट बँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, भूखों के लिए सदाब्रत (अन्नक्षेत्र ) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु की।

उन्होंने  काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारिका, बद्रीनारायण, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी इत्यादि प्रसिद्ध  तीर्थस्थानों पर मंदिर बनवाए और धर्म शालाएं खुलवायीं। कहा जाता है क़ि रानी अहिल्‍याबाई के स्‍वप्‍न में एक बार भगवान शिव आए। वे भगवान शिव की भक्‍त थीं और इसलिए उन्‍होंने 1777 में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया।

इंदौर वासी आज भी उन्हें अपनी माँ  के रुप मे ही याद करते हैं। माँ अहिल्याबाई आत्म-प्रतिष्ठा के झूठे मोह का त्याग करके सदा न्याय करने का प्रयत्न करती रहीं। अपने जीवनकाल में ही इन्हें जनता ‘देवी’ समझने और कहने लगी थी। उस काल में ना तो न्याय में शक्ति रही थी और न विश्वास। उन विकट परिस्थितियों में अहिल्याबाई ने जो कुछ किया-वह कल्पनातीत और चिरस्मरणीय है।

इंदौर में प्रति वर्ष भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी के दिन अहिल्योत्सव बडी धूमधाम से मनाया जाता है.

अरुन्धती

अरुन्धती ऋषि वशिस्ठ की पत्नी हैं। वह एक आदर्श पत्नी थी जिसने सच्चे दिल से अपने पति की सेवा करी और सुख दुःख में उनका साथ दिया।

एक बार सप्तर्षि, कश्यप, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदाग्नि  और वसिष्ठ, हिमालय पर्वत पर तपस्या करने के लिए गए। वे अरुंधती को अकेला जंगल में बने आश्रम में छोड़ गए। इस बीच में भयंकर अकाल पड़ा जो बारह साल तक चला। ऋषियों ने हिमालय पर बारह वर्षों तक तपस्या की।

आश्रम में अरुंधति के खाने के लिए कुछ भी नहीं था। उसने भगवान शिव के तपस्या करनी शुरू कर दी। भगवान शिव उसकी परीक्षा लेने के लिए एक बूढे ब्राह्मण का वेश धारण करके आये। आश्रम में आकर उन्होंने कहा की हे माता मुझे भूख लगी है। मुझे कुछ खाने को दो। अरुंधति ने कहा, “हे ब्राह्मण, घर में खाने के लिए कुछ नहीं है, यें थोड़े बदरी के बीज हैं इन्ही को खा लीजिये”। भगवान शिव ने कहा, “क्या तुम इन बीजों को पका सकती हो?”

अरुंधति ने आग जलाई और बीज पकाने लगी। बीज पकाते हुए उसने ब्राह्मण की कथाएँ और धर्म की चर्चा शुरू कर दी। अरुन्धती बारह वर्षो तक धर्म की व्याख्या करती रही। बारह साल के अंत में अकाल समाप्त हो गया और सप्तर्षि भी हिमालय से लौट आए।

भगवान शिव अरुंधती की तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना असली रूप ले लिया। उन्होंने ऋषियों से कहा, “अरुंधती की तपस्या आपके द्वारा हिमालय पर की गयी तपस्या से अधिक थी!” भगवान शिव ने अरुंधती के रहने के स्थान को पवित्र किया और चले गए।

आज भी अरुन्धती सप्तर्षि मंडल में स्थित वसिष्ठ के पास ही दिखती हैं। नवविवाहित लड़कियों आकाश में अरुंधती को देखकर उनकी तरह आदर्श पत्नी बनने की कामना करती हैं।

अरुंधति हमारे देश की महान महिलाओं में से एक है और हमें उन्हें हमेशा याद रखना चाहिए.