कपिलवस्तु

कपिलवस्तु

यह श्रावस्ती का समकालीन नगर था। यहाँ पर शाक्य-राजा शुद्धोधन की राजधानी थी जो गौतम बुद्धके पिता थे। परंपरा के अनुसार वहाँ कपिल मुनि ने तपस्या की, इसीलिये यह कपिलवस्तु (अर्थात् महर्षि कपिल का स्थान) नाम से प्रसिद्ध हो गया। नगर के चारों ओर एक परकोटा था जिसकी ऊँचाई अठारह हाथ थी। गौतम बुद्ध के काल में भारतवर्ष के समृद्धिशाली नगरों में इसकी गणना होती थी। यह उस समय तिजारती रास्तों पर पड़ता था। वहाँ से एक सीधा रास्ता वैशाली, पटना और राजगृह होते हुये पूरब की ओर निकल जाता था दूसरा रास्ता वहाँ से पश्चिम में श्रावस्ती की ओर जाता था।

बौद्ध ग्रथों में

नगर के भीतर एक सभा-भवन बना हुआ था, जहाँ पर शाक्य लोग एकत्र होकर महत्त्वपूर्ण विषयों पर सोच-विचार किया करते थे। बाद में एक सभा-गृह और बनवा दिया गया, जिसका उद्घाटन स्वयं गौतम बुद्ध ने किया था। वे इस अवसर पर अपने शिष्यों सहित वहाँ आये थे। उनके सम्मान में नगर अच्छी तरह सज़ा दिया गया और चारों ओर एक योजन की दूरी तक रोशनी की गई। उनकी सुविधा के लिये इस समय शान्ति की पूरी व्यवस्था कर दी गई थी। कुछ बौद्ध ग्रन्थों में इसकी शोभा का वर्णन अतिशयोक्ति के साथ किया गया है। ‘बुद्धचरित’ नामक बौद्ध ग्रंथ में इसी पुर को सभी नगरों में श्रेष्ठ (पुराधिराज) कहा गया है। इसकी समता में तत्कालीन कोई भी नगर नहीं आ सकता था और इसके ठाटबाट को देख कर लगता था मानों स्वयं राजलक्ष्मी ही वहाँ पर निवास कर रही हों। दरिद्रता के लिये वहाँ कोई अवकाश नहीं था। नागरिकों के घर वहाँ उसी तरह सुशोभित थे, जिस तरह सरोवर में कमलों की पंक्तियाँ। ललितविस्तर नामक ग्रन्थ में इसके सुन्दर उपवन एवं विहार आदि का वर्णन मिलता है। नागरिक समृद्ध, अच्छे विचारों वाले तथा धार्मिक थे। यहाँ लोगों को युद्ध-शिक्षा दी जाती थी। नगर में सुन्दर बाज़ार लगते थे। राजा शुद्धोधन सदाशय और पुरवासियों के हित में संलग्न थे। ‘सौन्दरनन्द’ नामक काव्य में इसे गौतम की जन्मभूमि कहा गया है। इस ग्रन्थ के अनुसार वहाँ के नागरिकों को अनुचित कर नहीं देने पड़ते थे और वे सुखी एवं संपन्न थे।

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