इन्सानोँ ने सोचा था कि भगवान का नाम ले लेने से सब ठीक हो जाता है।

इन्सानोँ ने सोचा था कि भगवान का नाम ले लेने से सब ठीक हो जाता है। और कुछ नहीँ होगा तो आँख बन्द करके हाय हाय कर लेंगे। कोस लेंगे जो जिम्मेदार होगा, मेरी कोई जिम्मेदारी नहीँ है। किसी ने भी अपनी जिम्मेदारी नहीँ समझी क्यूँकी प्रकृति न तो किसी की बीबी है, न पति, न अपना बच्चा, न माँ-बाप। और तो और वो वोट माँगने भी नहीँ आती। मेरे जाति, धर्म या देश से भी उसका कोई रिश्ता नहीँ। इन मूर्खोँ को यह नहीँ पता था कि वो बोलती नहीँ जैसा कि नेता भाषण देकर बताता है कि फलाँ चीज़ मुद्दा है। वो हमसे कहीँ ज्यादा क्रूर है। सीधा वार, ये ले मूर्ख इंसान! भुगत्। वैसे फिर भी मैं कहुँगा कि उसकी हम इंसानोँ से कोई दुश्मनी नहीँ है। ये हमारी ही तथाकथित बुद्धिमानी भरी करतूतोँ का नतीजा है। और जब ऐसा होता मिला तो अब कोई नहीँ कहता मिला कि बहुत मज़ा आ रहा है और मैं तो बङा ही शक्तिशाली हूँ। अब तो चीखपुकार मची हुई है।
वैसे इन इंसानोँ को तो सूअर कहना भी सूअर का अपमान है। सूअर प्रकृति का बलात्कार नहीँ करता, उसे साफ सुथरा करके निरोग करता है। इंसान अपने मतलब के लिये इसका ठीक उल्टा करता है। मैंने देखा है शहरोँ को बसते और अपने आस पास की हरियाली को जाते। साथ ही गँदगी का पहाङ खङा होते, जिसके पास से नाक दबाये इंसानोँ को गुजरते देखा जा सकता है। जब जँगल काटे जा रहे थे तो वो नुकसान नहीँ था, वो तो विकास-यात्रा थी। जब तमाम जीव जातियोँ का हम सत्यानाश कर रहे थे तब तो हम ढोग करते रहे कि हम सबका भला कर रहे हैं। अब क्या हुआ?? पहाङ से छेङछाङ करके, पहाङ के नाजुक और उसके पर्यावरण के लिये महत्वपूर्ण जँगलो को नुकसान पहुँचाकर, और मामूली से बाँध बना कर हम तब तो बङी डींगे हाँकते थे कि इंसान चाह ले तो पहाङ हिला सकता है। और चार मीटर नदी का पानी बढ गया तो भीगे चूहोँ की तरह से चीचियाने लगे। अब क्यूँ नहीँ हिलाते पहाङ???? मैं दोहराकर कहुँगा कि पूरे भारत और खासकर उत्तर भारत के लिये पहाङ बहुत महत्वपूर्ण हैं, उन्हेँ प्रदूषित और बर्बाद करके मैंदानोँ का जीवन भी नहीँ बचाया जा सकेगा। नदियोँ में एक बूँद साफ पानी भी नहीँ मिलेगा। फसल पैदा करने का तो ख्वाब देखना भी भूल है। और बरसात के दिन कहर बन जायेंगे। वैसे एक बोलत साफ पानी भी जिस देश में खरीदने पर ही मिलता है वहाँ के इंसान ऐसे हालात में कितने सहृदय होंगे कहने की जरूरत नहीँ है। उदाहरण के लिये 2013 की उत्तराखँड की केदारनाथ की बाढ का समय रहा हो या आजकल की जम्मू की बाढ, लोग मजबूर लोगोँ को लूटने में लग जाते हैं। समाचार में आ रहा है कि वैष्णोँ देवी के यात्रियोँ का खाना और होटल का किराया दोगुना हो गया है। और पिछले वर्ष केदारनाथ में मृतक लोगोँ के हाथ और उँगलियाँ काट कर जेवर निकाल लिये थे इंसानोँ ने। ऐसे हालात में कोढ में खाज खुद इंसान ही बन जाते हैं दूसरे इंसानोँ के लिये, अर्थात बदतर हालात में बेहतर मदद की उम्मीद है मुझे।

और हाँ! एक बात और कि मुझे धरती की चिंता नहीँ है। धरती तो कहा जाता है कि मँगल ग्रह जितने बङे ग्रह से टकराकर भी बच गयी थी। बस एक चाँद पैदा हुआ था। डायनासोर चले गये मगर धरती है। पर्मियन और दूसरे कई युग के कई बङे-बङे जानवर जिनकी ताकत का कोई मुकाबला नहीँ था, लापता हो गये मगर धरती टस से मस नहीँ हुई। तो बात धरती के या यहाँ के जीवन के खत्म हो जाने की नहीँ है, और मैं यह भी साफ कर देना चाहता हूँ कि ऐसा नहीँ सोचना चाहिये कि इंसान धरती बचा रहा है या नष्ट कर रहा है असल में वह खुद को ही बचा रहा है या नष्ट कर रहा है। धरती या जीवन जैसी चीजोँ के सामने इंसान की कोई औकात नहीँ है, वह अपना सीना फुला कर, अकङ कर डींगे चाहे जितनी हाँक ले। इन इंसानोँ को मैं जानता हूँ कि औकात पता चल जायेगी एक दिन अपनी, मगर तब तक इतनी देर हो चुकी होगी कि तथाकथित तमाम मासूम अपने भगवान के बनाये स्वर्ग या नर्क के वासी हो चुके होंगे। और ऐसा होते समय तमाम चीख पुकार और हाय हाय मचेगी।

कथनी और करनी- राधा नाचीज

कथनी और करनी- राधा नाचीज
शेक्सपीयर ने कहा है, ‘मन में जो भव्य विचार या शुभ योजना उत्पन्न हो, उसे तुरंत कार्यरूप मे परिणत कर डालिए, अन्यथा वह जिस तेजी से मन में आया, वैसे ही एकाएक गायब हो जाएगा और आप उस सुअवसर का लाभ न उठा सकेंगे।’ वास्तव में, समस्या यह नहीं कि हमारे पास उपयोगी विचार या सुंदर योजनाएं नहीं हैं। योजनाएं तो हम बहुत बनाते हैं। अपने बनाए उत्तम से उत्तम विचारों से प्रसन्न भी हम बहुत होते हैं, किंतु उन पर हम कार्य नहीं करते हैं। यही हमारी दुर्बलता है। हमें किन बातों से बचना चाहिए? हमें क्या कार्य करना चाहिए? क्या उचित है, क्या अनुचित है? हम सब इस संबंध में बहुत कुछ जानते हैं। समस्या यह है कि सब जानते-बुझते हुए अंतत: हम कार्य करते कितना हैं? व्यवहार में, दैनिक जीवन में, उन्नति की योजनाओं को कहां तक उतारते हैं? नवीन विचारों पर व्यवहार कितना करते हैं? जो हम सोचते हैं, क्या वह करते भी हैं? हमें विचार के पश्चात सतत कार्य करना चाहिए। कार्य करना ही सफलता का मूल-मंत्र है।
एक फ्रांसीसी कहावत है, ‘सोचो चाहे जो कुछ, पर कहो वही, जो तुम्हें करना चाहिए।’ जो व्यक्ति मन से, वचन से, कर्म से एक जैसा हो, वही पवित्र और सच्चा महात्मा माना जाता है। कथनी और करनी सम होना अमृत समान उत्तम माना जाता है। जो काम नहीं करते, कार्य के महत्व को नहीं जानते, कोरा चिंतन ही करते हैं, वे निराशावादी हो जाते हैं। कार्य करने से हम कार्य को एक स्वरूप प्रदान करते हैं। ‘काल करे सो आज कर’ में भी क्रियाशीलता का संदेश छिपा है। जब कोई अच्छी योजना मन में आए, तो उसे कार्यान्वित करने में देरी नहीं करनी चाहिए। अपनी अच्छी योजनाओं में लगे रहिए, जिससे आपकी प्रवृत्तियां शुभ कार्यों में लगी रहें। कथनी और करनी में सामंजस्य ही आत्म-सुधार का श्रेष्ठ उपाय है।
http://www.livehindustan.com/…/article1-hakespeare-planning…

एक मीठा उलाहना ” अजी सुनते हो एक बात कहू आपसे ???”

एक मीठा उलाहना
” अजी सुनते हो एक बात कहू आपसे ???”
एक 80 साल की पत्नी ने अपने 84 साल के पति से
कहा .
पति अपनी पत्नी के करीब आया और बोला कहो .
पत्नी भावुक होकर बोली ,
” आपको याद है आपने हमारी शादी से पहले
अपनी माँ को छुपकर एक ख़त लिखा था जिसमे आपने
अपने गुस्से का इजहार करते हुए लिखा था की आप मुझसे
शादी नहीं करना चाहते
क्युकी आपको मेरा चेहरा पसंद नहीं था ”
पति ने हैरान होकर पूछा ,
” वो ख़त तुझे कहा मिला वो तो बहुत पुरानी बात हे ”
पत्नी आँखों में आंसू भरके बोली ,
” कल आपके बक्से से मुझे ये पुराना ख़त मिला .
मुझे
नहीं पता था की ये शादी आपकी मर्जी के खिलाफ
हुई थी . वरना में खुद ही मना कर देती ”
पति ने अपना सर अपनी पत्नी की बांहों में रखा और
बोला ,
अरे पगली उस वक्त मैं सिर्फ 12 साल का था और मुझे
लगा तू मेरे से शादी करके जब आएगी तो मेरे कमरे में मेरे
साथ मेरा बिस्तर और तकिये पे सोएगी .
मेरे सारे
खिलोनो के साथ खेलेगी और मेरी गुल्लक से पैसे
चुरा लेगी .
लेकिन उस वक्त मैं ये कहा जानता था की तू
मेरी जिन्दगी में आकर मेरी जिन्दगी को एक कमरे से
बाहर एक घर तक ले जायेगी.
ये कहा जानता था की मुझे कपड़ो के बने खिलोनो से
कही ज्यादा खुबसूरत और प्यारे खिलोने ( हमारे बच्चे )
तू मुझे देगी .
ये कहा जानता था की मेरी चिल्लर से भरी गुल्लक के
मुकाबले तू मुझे प्यार की बेशकीमती दौलत देगी ,
अब बोल और भी कुछ पूछना बाकी हे ??”
पत्नी ने तसल्ली के साथ कहा .
” भगवान् का शुक्र हे . में तो समझ रही थी तुम्हे उस
पड़ोस वाली से प्रेम था ”
पति ने हंसते हुए कहा ,
” अजी रहने दो कहा वो और
कहा मेरी राजकुमारी…… ”
पत्नी और पति एक दुसरे से लिपट गए .
प्यार के
आखिरी सफ़र की मंजिल अब कुछ ही दूर बची थी

एक बार दो राज्यों के बीच युद्ध की तैयारियां चल रही थीं।

एक बार दो राज्यों के बीच युद्ध की तैयारियां चल रही थीं। दोनों के शासक एक प्रसिद्ध संत के भक्त थे। वे अपनीअपनी विजय का आशीर्वाद मांगने के लिए अलगअलग समय पर उनके पास पहुंचे। पहले शासक को आशीर्वाद देते हुए संत बोले, ‘तुम्हारी विजय निश्चित है।

दूसरे शासक को उन्होंने कहा, ‘तुम्हारी विजय संदिग्ध है।’ दूसरा शासक संत की यह बात सुनकर चला आया किंतु उसने हार नहीं मानी और अपने सेनापति से कहा, ‘हमें मेहनत और पुरुषार्थ पर विश्वास करना चाहिए। इसलिए हमें जोर-शोर से तैयारी करनी होगी। दिन-रात एक कर युद्ध की बारीकियां सीखनी होंगी। अपनी जान तक को झोंकने के लिए तैयार रहना होगा।’

इधर पहले शासक की प्रसन्नता का ठिकाना न था। उसने अपनी विजय निश्चित जान अपना सारा ध्यान आमोद-प्रमोद व नृत्य-संगीत में लगा दिया। उसके सैनिक भी रंगरेलियां मनाने में लग गए। निश्चित दिन युद्ध आरंभ हो गया। जिस शासक को विजय का आशीर्वाद था, उसे कोई चिंता ही न थी। उसके सैनिकों ने भी युद्ध का अभ्यास नहीं किया था। दूसरी ओर जिस शासक की विजय संदिग्ध बताई गई थी, उसने व उसके सैनिकों ने दिन-रात एक कर युद्ध की अनेक बारीकियां जान ली थीं। उन्होंने युद्ध में इन्हीं बारीकियों का प्रयोग किया और कुछ ही देर बाद पहले शासक की सेना को परास्त कर दिया।

अपनी हार पर पहला शासक बौखला गया और संत के पास जाकर बोला, ‘महाराज, आपकी वाणी में कोई दम नहीं है। आप गलत भविष्यवाणी करते हैं।’ 

उसकी बात सुनकर संत मुस्कराते हुए बोले, ‘पुत्र, इतना बौखलाने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारी विजय निश्चित थी किंतु उसके लिए मेहनत और पुरुषार्थ भी तो जरूरी था। भाग्य भी हमेशा कर्मरत और पुरुषार्थी मनुष्यों का साथ देता है और उसने दिया भी है तभी तो वह शासक जीत गया जिसकी पराजय निश्चित थी।संत की बात सुनकर पराजित शासक लज्जित हो गया और संत से क्षमा मांगकर वापस चला आया।

 

एक बूढा आदमी अपने बेटे , बहू और पोते के साथ रहता था।

एक बूढा आदमी अपने बेटे , बहू और पोते के साथ रहता था। उसका पोता उससे बहुत प्यार करता था। बुढ़ापे की वजह से वह हमेशा बीमार रहता था और दिन रात खाँसा करता था। उसकी बहू को ये पसन्द नहीं था। एक दिन तंग आकर उसने अपने पति से कहा कि आपके पिता जी हमेशा खाँसा करते हैं जिससे मैं रात मे डिस्टर्ब हो जाती हूँ। आप इन्हें बाहर वाले जो खपरैल वाला घर है उन्हें वहीं रहने को कह दो अब मै और बर्दाश्त नहीं कर सकती। बेटा पिता को घर से बाहर नही करना चाहता था पर पत्नी के आगे उसकी एक न चली और पिता जी से मजबूरन बाहर जाने को कहने लगा।

बेचारा बूढ़ा बिना कुछ कहे खपरैल वाले घर मे चला गया।बहु हमेशा अपने बेटे को सिखाया करती की बड़ो का आदर करो। पोता भी बूढे पिता के साथ जो भी होता वो चुपचाप देखा करता। कुछ दिन के बाद बहु ने घर के बर्तन मे खाना पानी देना भी बन्द कर दिया। एक थाली, गिलास, पानी रखने के लिये एक मिट्टी का मटका दे दिया।

एक दिन मटके मे पानी खत्म हो गया तो उसने सोचा कोई नही है तो मै ही भर लाता हूँ। जब वो पानी भरकर ला रहा था तभी मटका हाथ से छूट गया और वह फूट गया। मटके की फूटने की आवाज सुनकर सभी घर से बाहर आ गए।

उसका पोता दौड़ते – दौड़ते आया और उसने दादा जी को एक थप्पड धीरे से लगाया और कहा आप ये मटका क्यों फोड़े।यह देखकर उसका बेटा और बहु आश्चर्य चकित हो गये और कहने लगे मटका फूटा है तो दूसरा आ जायेगा। इसके लिये दादा जी को थप्पड़ क्यो मारा। अपने बड़ो के साथ ऐसा भी कोई करता है भला।

पोते ने आँखो मे आँसू भरकर रोते हुए कहा-“दादा जी ने ये पानी का मटका तोड़ दिया अब बताओ मै क्या करुँगा? जब आप दोनों बूढ़े हो जायेंगे तो आपको मै किसमें पानी दूँगा”।

दोस्तों हम जैसा अपने बड़ो के साथ करेंगे वही आगे चलकर हमे हमारे बच्चे सूत समेत वापस लौटा देंगे इसलिये दोस्तों माता – पिता का दिल भूले से भी मत दुखाना ।

एक कहानी जो आपके जीवन से जुडी है । ध्यान से अवश्य पढ़ें-

एक कहानी जो आपके जीवन से जुडी है ।

ध्यान से अवश्य पढ़ें–

 

एक अतिश्रेष्ठ व्यक्ति थे , एक दिन उनके पास एक निर्धन आदमी आया और बोला की मुझे अपना खेत कुछ साल के लिये उधार दे दीजिये ,मैं उसमे खेती करूँगा और खेती करके कमाई करूँगा,

 

वह अतिश्रेष्ठ व्यक्ति बहुत दयालु थे

उन्होंने उस निर्धन व्यक्ति को अपना खेत दे दिया और साथ में पांच किसान भी सहायता के रूप में खेती करने को दिये और कहा की इन पांच  किसानों को साथ में लेकर खेती करो, खेती करने में आसानी होगी,

इस से तुम और अच्छी फसल की खेती करके कमाई कर पाओगे।

वो निर्धन आदमी ये देख के बहुत खुश हुआ की उसको उधार में खेत भी मिल गया और साथ में पांच सहायक किसान भी मिल गये।

 

लेकिन वो आदमी अपनी इस ख़ुशी में बहुत खो गया, और वह पांच किसान अपनी मर्ज़ी से खेती करने लगे और वह निर्धन आदमी अपनी ख़ुशी में डूबा रहा,  और जब फसल काटने का समय आया तो देखा की फसल बहुत ही ख़राब  हुई थी , उन पांच किसानो ने खेत का उपयोग अच्छे से नहीं किया था न ही अच्छे बीज डाले ,जिससे फसल अच्छी हो सके |

 

जब वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति ने अपना खेत वापस माँगा तो वह निर्धन व्यक्ति रोता हुआ बोला की मैं बर्बाद हो गया , मैं अपनी ख़ुशी में डूबा रहा और इन पांच किसानो को नियंत्रण में न रख सका न ही इनसे अच्छी खेती करवा सका।

 

अब यहाँ ध्यान दीजियेगा-

 

वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति हैं -” भगवान”

 

निर्धन व्यक्ति हैं -“हम”

 

खेत है -“हमारा शरीर”

 

पांच किसान हैं हमारी इन्द्रियां–आँख,कान,नाक,जीभ और मन |

 

प्रभु ने हमें यह शरीर रुपी खेत अच्छी फसल(कर्म) करने को दिया है और हमें इन पांच किसानो को अर्थात इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रख कर कर्म करने चाहियें ,जिससे जब वो दयालु प्रभु जब ये शरीर वापस मांग कर हिसाब करें तो हमें रोना न पड़े।

 

☀ जीवन का मूल्य ☀

☀ जीवन का मूल्य ☀

💎 एक राजा का जन्म दिन था । सुबह जब वह घूमने निकला तो उसने तय किया कि वह रास्ते में मिलने वाले सबसे पहले व्यक्ति को आज पूरी तरह से खुश व सन्तुष्ट करेगा ।

💎 उसे एक भिखारी मिला । भिखारी ने राजा सें भीख मांगी तो राजा ने भिखारी की तरफ एक तांबे का सिक्का उछाल दिया । सिक्का भिखारी के हाथ सें छूट कर नाली में जा गिरा । भिखारी नाली में हाथ डालकर तांबे का सिक्का ढूंढने लगा ।

💎 राजा ने उसे बुलाकर दूसरा तांबे का सिक्का दे दिया । भिखारी ने खुश होकर वह सिक्का अपनी जेब में रख लिया और वापिस जाकर नाली में गिरा सिक्का ढूंढने लगा ।

💎 राजा को लगा कि भिखारी बहुत गरीब है । उसने भिखारी को फिर बुलाया और चांदी का एक सिक्का दिया । भिखारी ने राजा की जय-जयकार करते हुये चांदी का सिक्का रख लिया और फिर नाली में तांबे वाला सिक्का ढूंढने लगा ।

💎 राजा ने उसे फिर बुलाया और अब भिखारी को एक सोने का सिक्का दिया । भिखारी खुशी से झूम उठा और वापिस भागकर अपना हाथ नाली की तरफ बढाने लगा ।

💎 राजा को बहुत बुरा लगा । उसे खुद से तय की गयी बात याद आ गयी कि “पहले मिलने वाले व्यक्ति को आज खुश एवं सन्तुष्ट करना है ।” उसने भिखारी को फिर से बुलाया और कहा कि मैं तुम्हें अपना आधा राज-पाट देता हूँ । अब तो खुश व सन्तुष्ट हो जाओ ।

💎 भिखारी बोला – “सरकार ! मैं तो खुश और संतुष्ट तभी हो सकूँगा, जब नाली में गिरा हुआ तांबे का सिक्का भी मुझे मिल जायेगा ।”

💎 हमारा हाल भी उस भिखारी जैसा ही है । हमें परमात्मा ने मानव रुपी अनमोल खजाना दिया है और हम उसे भूलकर संसार रुपी नाली में तांबे के सिक्के निकालने के लिए जीवन गंवाते जा रहे हैं । “इस अनमोल मानव जीवन का हम सही इस्तेमाल करें, हमारा जीवन धन्य हो जायेगा ।”

मां

मां
************************** खाने के बाद मां के आंचल से हाथ पोंछना मेरी पुरानी आदत थी, जिस का मां ने कभी बुरा नहीं माना. आज जब यही आदत पत्नी पर अपनानी चाही तो बैड मैनर्स कहते हुए फटकार मिली. फिर एक दिन अचानक पत्नी ने उस ममता को पहचानते हुए अश्रुपूरित नेत्रों से ऐसा क्या कहा कि परिस्थिति ही बदल गई.

मां के आंचल से हाथ पोंछने की मेरी बचपन की आदत थी. इस आदत को ले कर पिताजी हमेशा टोकते थे लेकिन ऐसा करने पर मां का चेहरा ममता से भर उठता.

दिक्कत तो तब होती थी जब नौकरी के लिए परीक्षा देने के लिए बाहर जाता या कभी किसी अन्य काम से खाना खाने के बाद जब नैपकिन मिलता तो मां का पल्लू याद आ जाता. ऐसा लगता कि या तो पेट नहीं भरा या खाना ही ठीक नहीं था.?

कई दिनों के बाद जब बाहर से घर आता तो मां खाना परोसतीं और खाने के बाद नैपकिन मांगता तो मां को लगता कि उन का बेटा बदल गया है. अपनी मां से पहले जैसा प्रेम नहीं करता. मां को लगता कि मुझे बाहर की हवा लग गई है. जब मां देखतीं कि मैं ने खाना खा लिया है तो मेरे पास आ कर खड़ी हो जातीं और अपना पल्लू मेरे हाथ में थमा देतीं. मुझे अच्छा लगता. जब मैं कभीकभार भूल जाता तो मां कहतीं कि बाहर जा कर तुम्हें क्या हो जाता है. अपनी मां का पल्लू भी याद नहीं रहता. मैं तुम्हें कभी बाहर नहीं जाने दूंगी.

मां के पल्लू से मेरा विशेष लगाव, प्रेम, अपनत्व था. यह मेरी दिनचर्या का हिस्सा था. मां के न रहने पर भी मुझे खाने के बाद मां की याद आती थी. कितनी अच्छी और प्यारी थीं मेरी मां. मां ने कभी न सोचा और न ही मैं ने कि मां की साड़ी खराब होती है. यही आदत शादी के बाद भी बनी रही.

शादी के बाद पत्नी ने खाना परोसा. भोजन करने के बाद जैसे ही वह नैपकिन लेने के लिए उठी, मैं ने अपनी आदत के अनुसार उस के पल्लू से हाथ पोंछ लिए. पहले तो पत्नी ने कहा, ‘‘यह क्या है?’’

मैं ने कहा, ‘‘बचपन की आदत.’’

‘‘अब आप बच्चे नहीं रहे,’’ पत्नी ने कुछ झुंझलाते और समझाते हुए कहा, ‘‘आप शादीशुदा हैं. जिस काम के लिए नैपकिन है उस काम के लिए मेरी कीमती साड़ी खराब करने की क्या जरूरत है? फिर यह कोई अच्छी आदत नहीं है. बुरी आदतें कभी भी सुधारी जा सकती हैं.’’

पत्नी के उपदेश से बचने के लिए मैं ने सौरी कहा. पत्नी ने नैपकिन ला कर दिया. मुझे बरबस ही मां याद आ गईं. मेरी आंखें भर आईं. कहां तो मेरी मां ने कभी अपनी महंगी से महंगी साडि़यों की परवा नहीं की. मां की हर साड़ी के छोर पर मेरे हाथमुंह पोंछने के निशान लगे होते. लेकिन जब तक मैं मां के पल्लू से हाथ नहीं पोंछ लेता, मेरा भोजन करना पूर्ण नहीं होता और मां का भोजन करवाना.

मेरी मां को भी अलग से लाड़ दिखाने की जरूरत नहीं पड़ी और न मुझे कभी मां की ममता का यशोगान करने की. मेरे और मां के मध्य यह क्रिया हमारे प्रेम को सार्थक कर देती.

ऐसी बहुत सी बातें और आदतें हैं. लेकिन उम्र बढ़ने के साथ बहुत सी चीजें, बातें, क्रियाकलाप छूट जाते हैं. उन्हें हम भूल जाते हैं. लेकिन मां के पल्लू वाली यह बात अब आदत में आ चुकी थी. पत्नी ने जब प्यार से खाना परोसा तो मां ही लगी लेकिन हाथ पोंछने के लिए पत्नी के पल्लू का इस्तेमाल करने पर जब पत्नी ने टोका, समझाया तो समझ में आया कि नहीं, यह पत्नी ही है. पत्नी जो पति की बुरी आदतों को सुधारती है और पति के सुधरने पर गर्व करती है.

मुझे भी लगा कि जिस काम के लिए नैपकिन बना है उस के लिए पत्नी की कीमती साड़ी क्यों खराब करें? मैं ने सबक के रूप में पत्नी की बात याद रखी और भूल से भी गलती न हो जाए, इस हेतु मैं स्वयं ही खाना खाने से पहले नैपकिन अपने पास रखने लगा. तनुश्री संपन्न परिवार से थी. पढ़ीलिखी आधुनिक महिला. वह जानती थी कि परिवार को खुश कैसे रखा जाता है, एक पत्नी का क्या दायित्व होता है. लेकिन कुछ समय से वह नारी मुक्ति संगठन की सदस्य बनने से कुछ आक्रामक स्वभाव की हो गई थी. हर बात में वह यह जरूर देखती कि उस के महिला होने के आत्मसम्मान पर चोट तो नहीं पड़ रही है. उस का किसी भी तरह से शोषण तो नहीं हो रहा है. उस के अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है. कर्तव्य केवल उस के नहीं हैं, पति के भी हैं, पति जो पुरुष भी है. शादी के 1-2 वर्ष तक तो वह अच्छी पत्नी रही. हर काम दौड़दौड़ कर खुशीखुशी किए. सब से मिलनाजुलना. हंस कर बोलना. सब का ध्यान रखना. लेकिन संगठन की सदस्य बन कर अब वह बातबात में रोकटोक, बहस करने लगी. पतिदेव चुपचुप रहने लगे.

एक बार उस ने देख लिया कि पति उन से छिप कर एक पेटी में से कुछ निकालते हैं. फिर रख कर ताला बंद कर देते हैं और चाबी न जाने कहां छिपा कर रख देते हैं. तनुश्री के मन में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा. पहले उस ने सोचा कि पति से पूछे. फिर यह सोच कर चुप हो गई कि कहीं पूछने से पति सतर्क न हो जाएं. छिप कर पता लगाना ही उचित होगा. उस ने संगठन की अध्यक्षा को यह बात बताई तो उस ने कहा, ‘‘इन मर्दों का कोई ठिकाना नहीं. हो सकता है कि किसी अन्य स्त्री का कोई चक्कर हो. कहीं उस पेटी में पहली पत्नी…तुम ने पूरी जानकारी ले कर शादी की थी न? ऐसा तो नहीं कि पहली स्त्री से तलाक हो गया हो या न रही हो. तुम से दूसरी शादी…कुछ भी हो सकता है.’’

‘‘नहीं दीदी, मेरे घर वालों ने पूरी छानबीन की थी. वे ऐसा नहीं कर सकते. इतनी बड़ी बात छिप भी कैसे सकती है,’’ तनुश्री ने उदास हो कर कहा. उस के चेहरे पर उदासी की घटाएं छा गईं.

‘‘फिर तो पक्का किसी लड़की के साथ अफेयर होगा,’’ अध्यक्षा ने कहा, ‘‘तुम पता करो. औफिस की कोई महिला है या कालोनी की. एक बार पता चल जाए तो ईंट से ईंट बजा देंगे. तुम चिंता मत करो. संगठन तुम्हारे साथ है. तुम्हें न केवल तलाक दिलवाएंगे बल्कि लंबाचौड़ा हर्जाखर्चा और साथ में उस आदमी को जेल भी भिजवाएंगे. उस के खिलाफ मोरचा निकालेंगे. कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेगा.’’

उन के चेहरे से झलक रहा था मानो किसी खूंखार भूखी शेरनी को कोई शिकार मिल गया हो.

‘‘लेकिन दीदी, मेरा घर मेरा पति, मेरा परिवार, मेरा जीवन,’’ तनुश्री ने सबकुछ लुट जाने के भाव से कहा. कहते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘घरपरिवार सब बाद में. पहले स्त्री का अधिकार. महिला मुक्ति ही हमारे जीवन का लक्ष्य है. महिलाओं के खिलाफ पुरुषों के अत्याचार को हम सहन नहीं करेंगे,’’ तनुश्री की उदासी देख कर अध्यक्षा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘पगली, रोती क्यों है. अभी तुम्हारी दीदी जिंदा है. बस, इतना पता कर कि उस पेटी में ऐसा क्या है जो तुम्हारा पति तुम से छिपा रहा है. साबित करने के लिए सुबूत जरूरी है.’’

तनुश्री ने घर का कोनाकोना छान मारा लेकिन उसे पेटी की चाबी कहीं नहीं मिली. उस ने ठान लिया कि दूसरे दिन दोपहर में पति के दफ्तर जाने के बाद वह ताले को तोड़ेगी और इस भेद को जान कर रहेगी. वह बीमारी का बहाना कर के पड़ी रही. पति ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? तबीयत खराब है?’’

उस ने गुस्से में कहा, ‘‘क्यों, क्या मैं आराम नहीं कर सकती. यदि मेरा काम करने का मन न हो तो भी मुझे काम करना पड़ेगा. कोई जबरदस्ती है,’’ तनुश्री का गुस्सा देख कर पति चुप हो गए. पति ने उसे अपने हाथ से खाना बना कर दिया. गुस्से में उस ने खाने से मना कर दिया, ‘‘मुझे भूख नहीं है.’’

पति ने इस के बाद कुछ न कहा. तनुश्री सोचने लगी, ‘कितना चालाक आदमी है. सामने कितना शरीफ बनता है. और पीठ पीछे न जाने क्याक्या गुल खिलाता है. उस के दिमाग में विचारों के आंधीतूफान उठते रहे. नींद आंखों से कोसों दूर थी. दिमाग में बस यही चल रहा था कि क्या होगा उस पेटी में.’

पति के दफ्तर जाते ही सब से पहले वह पेटी के पास पहुंची. उस ने पेटी में लगे ताले पर पत्थर से 3-4 प्रहार किए. ताला तो नहीं टूटा, पेटी जरूर जगह से खिसक गई. पेटी के नीचे चाबी देख कर वह चकित रह गई. इतनी चालाकी से छिपाया तभी पूरे घर में तलाशने से भी नहीं मिली. यह आदमी तो बड़ा छिपारुस्तम निकला. उस ने झट से ताला खोला. उस में एक पुरानी सी लेकिन चमकदार साड़ी निकली. कोई आ न जाए, कोई देख न ले. इस कारण उस ने साड़ी को ज्यों का त्यों उठा कर एक थैले में भर लिया. साड़ी न इस्त्री की हुई थी न ही तह कर के रखी हुई थी. अस्तव्यस्त थी.

वह साड़ी ले कर अध्यक्ष महोदया के घर पहुंची. उसे देख कर अध्यक्षा आश्चर्य से बोलीं, ‘‘अचानक कैसे? औफिस में आ जातीं.’’

‘‘दीदी, सुबूत मिल गया है. साड़ी निकली है पेटी में से,’’ तनुश्री ने लगभग रोते हुए कहा.

अध्यक्षा ने हड़बड़ा कर कहा, ‘‘अरे, रोओ मत, यह मेरा घर है. पता नहीं घर के लोग क्या सोचने लगें. तुम एक

काम करो. थोड़ी देर बैठो. मैं घर के काम निबटा कर चलती हूं. चाय भी भिजवाती हूं.’’

‘‘मंगला, खाना तैयार है,’’ तभी घर से एक वृद्ध पुरुष की आवाज आई.

‘‘बस 2 मिनट,’’ अध्यक्ष महोदया का उत्तर था.

‘‘मंगला चाय बन गई मेरी,’’ एक वृद्ध स्त्री का स्वर गूंजा.

‘‘अभी लाई मांजी,’’ अध्यक्ष महोदया का स्वर था.

‘‘मंगला मेरा टिफिन तैयार है,’’ एक अधेड़ मर्दाना आवाज आई.

‘‘हां, तैयार कर रही हूं,’’ अध्यक्षा ने कहा.

‘‘कौन आया है, तुम अपने संगठन के झंझट वहीं सुलझाया करो. यह घर है तुम्हारा, औफिस नहीं,’’ अधेड़ की आवाज में कुछ तेजी थी.

‘‘अरे मेरी सहेली है,’’ मंगला अर्थात अध्यक्षा की आवाज उस के कानों में गूंजी.

‘‘क्या दुख है बेचारी को?’’ पति की आवाज व्यंग्यभरी थी.

‘‘चुप रहो, सुन लेगी,’’ अध्यक्षा की आवाज थी. स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध भड़काने वाली अपने घर में सब को खुश रख रही है. पति, सासससुर सब के आगेपीछे घूम कर हुक्म बजा रही है और… इतने में मंगला तैयार हो कर आ गई.

‘‘चलो निकलते हैं. नहीं तो घर के काम तो खत्म ही नहीं होते,’’ अध्यक्षा ने कहा.

‘‘दीदी, आप तो घर में कुछ और औफिस में कुछ और ही नजर आती हैं,’’ तनुश्री ने कहा.

‘‘अरे बहन, यह मेरा घर है. घर में घर जैसी ही रहूंगी न. घर में मैं बहू हूं, पत्नी हूं, मां हूं. अभी बच्चे नहीं आए स्कूल से. नहीं तो आ भी नहीं पाती, तुम्हारे साथ. हां, कहो, क्या सबूत मिला?’’

‘‘साड़ी,’’ तनुश्री ने धीरे से कहा.

‘‘अब देखो, खैर नहीं तुम्हारे पति की.’’

औफिस पहुंचते ही अध्यक्षा ने कहा, ‘‘दिखाओ.’’

उस ने साड़ी निकाल कर दी. अध्यक्षा ने साड़ी को पूरा फैलाया. उस में से एक कागज गिरा. तनुश्री ने उसे उठाया. अध्यक्षा ने कहा, ‘‘प्रेमपत्र होगा. पढ़ो. यह इतनी गंदी अस्तव्यस्त साड़ी.’’

अध्यक्षा ने साड़ी का गौर से मुआयना किया. उसे सूंघा. साड़ी को बहुत बारीकी से देखा. इस बीच तनुश्री पत्र पढ़ती रही. पत्र पढ़तेपढ़ते उस की आंखों से आंसू बहने लगे.

प्यारी मां,

आप तो रही नहीं. बचपन की एक आदत अभी तक नहीं छूटी आप के कारण. आप ने बताया भी नहीं कि यह गलत आदत है. आप तो कहती थीं कि भोजन परोसते वक्त पत्नी भी मां का रूप होती है. आप की बहू ने तो अपने पल्लू से हाथ पोंछने को बैड मैनर्स करार दे दिया. मैं भोजन के बाद आप की साड़ी से हाथमुंह पोंछता हूं. आदत जाती ही नहीं. लगता ही नहीं कि पेट भर गया. मन तृप्त ही नहीं होता. तनुश्री में तो मां नहीं मिली. वह आधुनिक स्त्री है. वह मेरी इस गंदी आदत के कारण अपनी कीमती साडि़यों का सत्यानाश क्यों करवाएगी. सो, मैं आप की साड़ी से आज भी हाथमुंह साफ करता हूं. मैं जानता हूं कि आप पहले की तरह ममता से भर जाती होंगी. मुझे भी लगता है कि मेरी मां मेरे सामने खड़ी है.

आप का बेटा.

अध्यक्ष महोदया ने तनुश्री को जोरजोर से रोते देखा. पत्र अपने हाथ में ले लिया. पत्र पढ़ कर वे भी सन्नाटे में आ गईं. क्याक्या न कह डाला उन्होंने. क्याक्या न सोच लिया. हां, प्रेमपत्र ही तो था. एक लाड़ले बेटे का दुनिया से विदा ले चुकी अपनी मां के नाम. वे तनुश्री को सीने से लगा कर उस के सिर को सहलाती रहीं. उन्होंने तनुश्री से माफी मांगते हुए कहा, ‘‘तनु, मुझे माफ कर दो. अपने पति की मां बन जाओ और सद्गृहस्थता को सार्थक करो. तुम्हारे पति को पत्नी के साथसाथ मां की भी जरूरत है.’’

आज जब मैं खाना खा कर नैपकिन की तरफ बढ़ा तो नैपकिन वहां नहीं था जहां मैं ने रखा था. मैं ने तनु को आवाज दी तो उस ने अपनी साड़ी का छोर पकड़ाते हुए कहा, ‘‘इस से पोंछ लो.’’

‘‘अरे, लेकिन तुम्हारी महंगी साड़ी खराब…’’

मेरा वाक्य पूरा नहीं हो पाया. तनु ने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया और आंखों में आंसू भरते हुए कहा, ‘‘आप की भावनाओं से ज्यादा कीमती नहीं है दुनिया की कोई भी साड़ी. आज से आप का नैपकिन मेरी साड़ी का पल्लू ही होगा. जिस दिन आप ने मेरे पल्लू से हाथमुंह साफ नहीं किया, मैं समझूंगी आप का स्नेह मेरे प्रति कम हो गया है.’’

तनु के चेहरे के भाव देख कर मेरे सामने मां का चेहरा घूम गया.

एक जादूगर के पास बहुत सी भेड़ें थीं।

एक जादूगर के पास बहुत सी भेड़ें थीं। और उसने पाल रखा था भेड़ों को भोजन के लिए। रोज एक भेड़ काटी जाती थी, बाकी भेड़ें देखती थीं, उनकी छाती थर्रा जाती थी। उनको खयाल
आता था कि आज नहीं कल हम भी काटे जाएंगे। उनमें जो कुछ होशियार थीं, वे भागने की कोशिश भी करती थीं। जंगल में दूर निकल जाती। जादूगर को उनको खोज—खोज कर लाना पड़ता। यह रोज की झंझट हो गई थी। और न वे केवल खुद भाग जातीं, और भेड़ों को भी समझातीं कि भागो, अपनी नौबत भी आने की है। कब हमारी बारी आ जाएगी पता नहीं! यह7 आदमी नहीं है, यह मौत है! इसका छुरा देखते हो, एक ही झटके में गर्दन अलग कर देता है!
आखिर जादूगर ने एक तरकीब खोजी, उसने सारी भेड़ों को बेहोश कर दिया और उनसे कहा, पहली तो बात यह कि तुम भेड़ हो ही नहीं। जो कटती हैं वह भेड़ है, तुम भेड़ नहीं हो। तुममें से कुछ सिंह हैं, कुछ शेर हैं, कुछ चीते हैं, कुछ भेड़िए हैं। तुममें से कुछ तो मनुष्य भी हैं। यही नहीं, तुममें से कुछ तो जादूगर भी हैं।
सम्मोहित भेड़ों को यह भरोसा आ गया। उस दिन से बड़ा आराम हो गया जादूगर को। वह जिस भेड़ को काटता, बाकी भेड़ें हंसती कि बेचारी भेड़! क्योंकि कोई भेड़ समझती कि मैं मनुष्य हूं! और कोई भेड़ समझती कि मैं तो खुद ही जादूगर हूं मुझको कौन काटने वाला है! कोई भेड़ समझती मैं सिंह हूं ऐसा झपट्टा मारूंगी काटने वाले पर कि छठी का दूध याद आ जाएगा। मुझे कौन काट सकता है? यह बेचारी भेड़ है, रें—रें करके काटी जा रही है! और यह भेड़ भी कल तक यही सोचती रही थी जब दूसरी भेड़ें कट रही थीं कि मैं सिंह हूं कि मैं मनुष्य हूं कि मैं जादूगर हूं, कि मैं यह हूं कि मैं वह हूं। उस दिन से भेड़ों ने भागना बंद कर दिया।
गुरजिएफ कहता था आदमी करीब—करीब ऐसी हालत में है। तुम सोए हो, गहन निद्रा में सोए हो।
आध्यात्मिक अर्थों में सोने का अर्थ समझ लेना। सोने का अर्थ यह नहीं होता कि जब तुम रात को बिस्तर पर आख बंद करके सोते हो तभी सोते हो। वह शारीरिक निद्रा है। आध्यात्मिक निद्रा का अर्थ होता है, जिसको स्वयं का पता नहीं हैं की उसे मनुष्य जन्म का क्या ध्येय है और वो मनुष्य और पशु जीवन के भेद को नहीं समझता वह सोया है।

मन ही पूजा मन ही धूप(संत रैदास-वाणी)

प्रेम का विस्तार

प्रेम का विस्तार
आचार्य रामानुज के पास एक आदमी आया और उसने कहा,“महाराज मुझे अपना शिष्य बना लें।मैं साधना करके भगवान को पाना चाहता हूं।”आचार्य रामानुज ने उससे कहा, “ परमात्मा की बात हम बाद में भी कर सकते हैं।पहले मेरे एक सवाल का जवाब दो।क्या तुमने कभी किसी से प्रेम किया है?” उस आदमी ने जवाब दिया, “महाराज,मैं प्रेम के झंझट में कभी पड़ा ही नहीं। मेरा तो जिंदगी में एक ही लक्ष्य रहा,परमात्मा को पाना।“आचार्य रामानुज ने उससे कहा,“भाई सोच ले। याद कर ले, फिर बता।कभी किसी मित्र से, मां से, भाई से, पिता से,पत्नी से, किसी स्त्री से, किसी से तो प्रेम किया होगा?” उस आदमी ने बहुत गर्व के साथ जवाब दिया, “मैं कभी इस सांसारिक मायाजाल में फंसा ही नहीं।प्रेम से मेरा कभी दूर का भी वास्ता नहीं रहा।” इस पर रामानुज ने उससे कहा,“मैं असहाय हूं। मैं तुम्हें अपना शिष्य नहीं बना सकता। तुमने अभी तक प्रेम को जाना ही नहीं, तो तुम भक्ति को कैसे जान पाओगे? भक्ति प्रेम का ही विस्तार है, उसकी चरम परिणति है।”